रबड़ की खेती से सिकुड़ रहे हैं जंगल                                                                 

बड़ की खेती एक फायदेमंद आर्थिक गतिविधि हो सकती है, पर इसका बढ़ता दायरा पर्यावरण संतुलन के लिए एक खतरा बनकर उभर रहा है। पूर्वोत्तर भारत में रिमोट सेंसिंग एवं भौगोलिक सूचना तंत्र (जीआईएस) से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण करने के बाद भारतीय शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं।

मेघालय के उमियम में स्थित उत्तर-पूर्वी अंतरिक्ष उपयोग केंद्र और असम विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा पूर्वोत्तर भारत के त्रिपुरा, मिजोरम और असम के करीमगंज जिले में यह अध्ययन किया गया है।

शोधकर्ताओं ने पाया है कि अध्ययन में शामिल रबड़ उत्पादन वाले क्षेत्रों का दायरा पिछले करीब 16 वर्षों में 4.47 वर्ग किलोमीटर से बढ़कर 28.42 वर्ग किलोमीटर हो गया है, जो पारिस्थितिक तंत्र के लिए चुनौती बनकर उभर रहा है।

" दुनिया भर में रबड़ की काफी मांग है, जो निरंतर बढ़ रही है। अनुमान है कि वर्ष 2050 तक रबड़ की खेती का दायरा बढ़कर चार गुना हो सकता है। "

अध्ययनकर्ताओं में शामिल उत्तर-पूर्वी अंतरिक्ष उपयोग केंद्र की शोधकर्ता कस्तूरी चक्रवर्ती ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “तेजी से बढ़ते रबड़ बागानों पर यह अध्ययन केंद्रित है, जो मिश्रित एवं खुले वन क्षेत्रों को बड़े पैमाने पर प्रभावित कर रहा है। भूमि उपयोग के इस बदलते पैटर्न के कारण वन्य जीव विविधता खतरे में पड़ सकती है।”

पूर्वोतर विकास वित्त निगम के अनुसार त्रिपुरा में वर्ष 1976-77 में रबड़ उत्पादन क्षेत्र महज 574 हेक्टेयर में फैला था, जो अब बढ़कर 70 हजार हेक्टेयर से अधिक हो गया है। इसी तरह असम में वर्ष 2006-07 में 16.5 हजार हेक्टेयर में रबड़ उत्पादन होता था, जो अब करीब 50 हजार हेक्टेयर हो गया है।

वर्ष 2000-01 में मेघालय में 4,029 हेक्टेयर क्षेत्र में रबड़ की खेती होती थी, जो 2006-07 में ही 5,331 हेक्टेयर में फैल चुकी थी। इस अवधि में मिजोरम में रबड़ बागानों का दायरा 507 हेक्टेयर से बढ़कर 525 हेक्टेयर और नागालैंड में 585 हेक्टेयर से बढ़कर 2486 हेक्टेयर हो गया था।

खुले एवं विकृत वन क्षेत्रों के अलावा घने जंगलों और अध्ययन क्षेत्र में शामिल एक संरक्षित वन में भी रबड़ की खेती हो रही है। आंकड़ों से स्पष्ट है कि कम कैनोपी कवर वाले वन क्षेत्रों के साथ-साथ घने वन क्षेत्रों में भी रबड़ उत्पादन बढ़ रहा है।

अध्ययन में शामिल वैज्ञानिकों के अनुसार भूमि उपयोग में बड़े पैमाने पर होने वाले इस बदलाव का सबसे अधिक असर पारिस्थितक प्रक्रिया, ऊर्जा संतुलन एवं जल प्रवाह पर पड़ सकता है। इसके साथ-साथ एक ही प्रजाति की वनस्पति की बहुलता होने से प्राकृतिक वनों की अपेक्षा आवास का अनुकूलन कम हो जाता है।

दुनिया भर में रबड़ की काफी मांग है, जो निरंतर बढ़ रही है। अनुमान है कि वर्ष 2050 तक रबड़ की खेती का दायरा बढ़कर चार गुना हो सकता है। हालांकि, दक्षिण एशिया में बड़े पैमाने पर रबड़ उत्पादन को बढ़ावा दिए जाने के नकारात्मक परिणाम देखे गए हैं। रबड़ की एकफसली खेती के विस्तार से वहां एक ओर जंगल सिमट रहे हैं तो दूसरी ओर स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र के लिए खतरा बढ़ रहा है। पूर्वोत्तर भारत में रबड़ की खेती भी अब ठीक उसी खतरे की ओर बढ़ रही है।

दक्षिण-पूर्व एशिया, लाओस, दक्षिण-पश्चिमी चीन, कंबोडिया, म्यांमार, थाईलैंड, उत्तर-पश्चिम वियतनाम समेत पूर्वोत्तर भारत में रबड़ की खेती तेजी से बढ़ रही है। भारत के कुल वन क्षेत्र का करीब एक-चौथाई हिस्सा पूर्वोत्तर भारत में है, पर वहां पर हाल के वर्षों में रबड़ और बांस में निवेश के अवसरों की आकर्षण बढ़ा है। भारतीय रबड़ बोर्ड के अनुसार पूर्वोत्तर भारत का राज्य त्रिपुरा केरल के बाद रबड़ उत्पादन का दूसरा प्रमुख केंद्र है। मेघालय, मिजोरम और असम पूर्वोत्तर क्षेत्र में स्थित अन्य रबड़ उत्पादक राज्य हैं।

रबड़ बोर्ड देश में प्राकृतिक रबड़ के उत्पादन को बढ़ाने के लिए पूर्वोत्तर भारत जैसे गैर-पारंपरिक क्षेत्रों में इसकी खेती का प्रचार कर रहा है। लेकिन, आर्थिक गतिविधियों के साथ पर्यावरण का ख्याल रखना भी जरूरी है। इसीलिए अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि संरक्षित वनों एवं घने जंगलों को उजाड़कर की जा रही रबड़ की खेती के विस्तार पर लगाम लगाने के लिए इसका नियमन किया जाना जरूरी है। इसके अलावा रबड़ की एकफसली खेती के बजाय मिश्रित कृषि और टिकाऊ भूमि उपयोग एवं प्रबंधन उपायों को अपनाया जाना भी जरूरी है।

अध्ययनकर्ताओं की टीम में कस्तूरी चक्रवर्ती के अलावा एस. सुधाकर, के.के. शर्मा, पी.एल.एन. राजू और आशेष कुमार शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका करंट साइंस में प्रकाशित किया गया है। (India Science Wire)