फीचर

संकटग्रस्त ‘मैंग्रोव पारिस्थितिक तंत्र’ के संरक्षण की जरूरत!                                                                 

      

एक मैंग्रोव पट्टी का दृश्य (फोटोः क्रिएटिव कॉमन्स)

मैंग्रोव उष्ण-कटिबंधीय वृक्ष और झाड़ियाँ हैं, जो ज्वारीय क्षेत्रों में समुद्र के किनारे, लवणीय दलदल और कीचड़ भरे तटों पर पाये जाते हैं। जलवायु परिवर्तन का सामना करने, जैव विविधता की रक्षा, और सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं के जोखिम को कम करने में मैंग्रोव अहम् भूमिका निभाते हैं। समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र की मजबूत कड़ी होने के साथ-साथ पर्यावरण, अर्थव्यवस्था तथा समुदायों को लाभ पहुँचाने के लिए विख्यात मैंग्रोव विभिन्न मानवीय गतिविधियों के कारण आज स्वयं संकट में हैं।

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के एक अनुमान के मुताबिक दुनियाभर में करीब 67% मैंग्रोव आवास नष्ट हो चुके हैं, या फिर उनका क्षरण हो रहा है। सुंदरबन, भितरकनिका, पिचवरम, चोराओ और बाराटांग इत्यादि भारत के कुछ खूबसूरत मैंग्रोव क्षेत्रों के रूप में जाने जाते हैं, जो आज सबसे अधिक संकटग्रस्त मैंग्रोव पट्टियों में शामिल हैं।

मैंग्रोव दुनिया में पेड़ों की एकमात्र प्रजाति है, जो खारे पानी को सहन करने में सक्षम है। मैंग्रोव जैव-विविधता का एक अनूठा पारिस्थितिकी तंत्र है, जिसमें सैकड़ों मछलियाँ, सरीसृप, कीट, सूक्ष्मजीव, शैवाल, पक्षी और स्तनपायी प्रजातियाँ पायी जाती हैं। वे ज्वार की लहरों के अवशोषक के रूप में कार्य करते हैं, और अपनी उलझी हुई जड़ प्रणालियों के साथ तलछट को स्थिर करके मिट्टी के कटाव को रोकने में मदद करते हैं।

मैंग्रोव न केवल जीवों एवं पादप प्रजातियों को आवास प्रदान करते हैं, बल्कि उनकी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए, तटीय समुदाय के लोगों के जीवन का समर्थन करने के साथ-साथ कार्बन सिंक के रूप में भी प्रभावशाली भूमिका निभाते हैं। मैंग्रोव आवास क्षेत्र; उन्हें दुनिया के अधिकांश निम्न और मध्यम आय वाले देशों में विशेष रूप से महत्वपूर्ण बनाते हैं, जहाँ वे पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं और आजीविका की एक विस्तृत श्रृंखला प्रदान करते हैं।

वन सर्वेक्षण रिपोर्ट (आईएसएफआर)-2021 के मुताबिक देश में कुल मैंग्रोव क्षेत्र 4,992 वर्ग किलोमीटर है। वन सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, यह सही है कि वर्ष 2019 के आकलन की तुलना में देश के मैंग्रोव क्षेत्र में 17 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है। लेकिन, नुकसान के अनुपात में यह भरपाई नाकाफी ही कही जाएगी। मैंग्रोव क्षेत्र में वृद्धि दिखाने वाले शीर्ष तीन राज्य ओडिशा (08 वर्ग किलोमीटर), इसके बाद महाराष्ट्र (04 वर्ग किलोमीटर) और कर्नाटक (03 वर्ग किलोमीटर) हैं। अन्य तटीय राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों को भी इस दिशा में प्रभावी कदम उठाने की जरूरत है, जिससे मैंग्रोव कवर को बढ़ाया जा सके।

मैंग्रोव के महत्व को देखते हुए इसके संरक्षण की तीव्रता से आवश्यकता महसूस की जा रही है। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) मैंग्रोव की निगरानी, वैज्ञानिक अनुसंधान और सतत् उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए गहनता से कार्य कर रहा है। यूनेस्को द्वारा निर्दिष्ट साइटों, जैसे बायोस्फीयर रिजर्व, विश्व धरोहर स्थलों और ग्लोबल जियोपार्क में मैंग्रोव को शामिल करने से दुनियाभर में मैंग्रोव पारिस्थितिक तंत्र से संबंधित ज्ञान, प्रबंधन और संरक्षण गतिविधियों में सुधार करने में योगदान मिलता है।

मैंग्रोव उष्ण-कटिबंधीय वृक्ष और झाड़ियाँ हैं, जो ज्वारीय क्षेत्रों में समुद्र के किनारे, लवणीय दलदल और कीचड़ भरे तटों पर पाये जाते हैं। जलवायु परिवर्तन का सामना करने, जैव विविधता की रक्षा, और सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं के जोखिम को कम करने में मैंग्रोव अहम् भूमिका निभाते हैं। समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र की मजबूत कड़ी होने के साथ-साथ पर्यावरण, अर्थव्यवस्था तथा समुदायों को लाभ पहुँचाने के लिए विख्यात मैंग्रोव विभिन्न मानवीय गतिविधियों के कारण आज स्वयं संकट में हैं।

अन्नामलाई विश्वविद्यालय के मानद प्रोफेसर और यूजीसी-बीएसआर फैकल्टी फेलो के. काथिरेसन ने अत्यधिक दोहन, खराब प्रबंधन, बुनियादी ढांचे के उपयोग में वृद्धि, तेजी से बढ़ती जलीय कृषि और चावल की खेती को मैंग्रोव क्षेत्रों के संकटग्रस्त होने के कारणों के रूप में रेखांकित किया है। प्रोफेसर काथिरेसन मैंग्रोव की मैपिंग, और इस तरह सर्वाधिक उपयुक्त मैंग्रोव प्रजातियों का चयन करके, मैंग्रोव पट्टियों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता पर जोर देते हैं।

भारत में मैंग्रोव संरक्षण एवं संवर्द्धन की पहल सरकारी एवं गैर-सरकारी स्तरों पर की जा रही है। सरकार ने देश में वनों के संरक्षण और संवर्धन के लिए प्रोत्साहन के साथ-साथ नियामक उपायों के माध्यम से कदम उठाए हैं। मैंग्रोव और प्रवाल भित्तियों के संरक्षण और प्रबंधन पर राष्ट्रीय तटीय मिशन कार्यक्रम के अंतर्गत जागरूकता प्रसार के प्रयास किये जा रहे हैं। इसके तहत, सभी तटीय राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मैंग्रोव संरक्षण और प्रबंधन के लिए वार्षिक कार्ययोजना कार्यान्वित की जाती है। हाल में, भारत की जिन पाँच आर्द्रभूमियों को रामसर की अंतरराष्ट्रीय महत्व की आर्द्रभूमि के रूप में मान्यता मिली है, उनमें तमिलनाडु का पिचवरम मैंग्रोव क्षेत्र शामिल है।

पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय तटीय संसाधनों के संरक्षण के उद्देश्य से तीन राज्यों - गुजरात, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के तटीय हिस्सों में एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन परियोजना का संचालन कर रहा है, जिसकी गतिविधियों में मैंग्रोव का रोपण उल्लेखनीय रूप से शामिल है। इसके अलावा, महाराष्ट्र सरकार द्वारा मैंग्रोव संरक्षण के लिए समर्पित एक ‘मैंग्रोव सेल’ की स्थापना की गई है। मैंग्रोव और समुद्री जैव विविधता संरक्षण फाउंडेशन भी मैंग्रोव कवर को बढ़ाने और वन विभाग के तहत अनुसंधान और आजीविका गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया है।

केरल के वेम्बनाड और कन्नूर क्षेत्रों में मैंग्रोव का संरक्षण और प्रबंधन, तटीय क्षेत्रों में रोपण के लिए कैसुरिना के पौधे और मैंग्रोव से जुड़ी प्रजातियों को जनता को वितरित किया जाता है। वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (WWF) द्वारा महाराष्ट्र, गोवा, गुजरात, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक समेत नौ तटीय राज्यों के नागरिकों को ‘मैजिकल मैंग्रोव’ अभियान के माध्यम से मैंग्रोव संरक्षण से जोड़ने की पहल की गई है। यह जानकारी, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे द्वारा कुछ समय पूर्व राज्य सभा में प्रदान की गई है।

मैंग्रोव संरक्षण और प्रबंधन के लिए; सर्वेक्षण एवं सीमांकन, वैकल्पिक एवं पूरक आजीविका, सुरक्षा उपायों और शिक्षा तथा जागरूकता गतिविधियों सहित कार्य-योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए केंद्र प्रायोजित योजना के तहत सरकार तटीय राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को सहायता प्रदान करती है। पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986; वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972; भारतीय वन अधिनियम, 1927; जैव विविधता अधिनियम, 2002; और समय-समय पर संशोधित इन अधिनियमों से जुड़े नियमों के तहत तटीय विनियमन क्षेत्र (सीआरजेड) अधिसूचना (2019) के माध्यम से विभिन्न नियामक उपाय इन प्रयासों को बल प्रदान करते हैं।

जलीय प्रदूषण के अन्य स्रोतों के साथ-साथ तटीय क्षेत्रों में प्लास्टिक एवं अन्य कचरा जमा होने से भी मैंग्रोव वनों को नुकसान हुआ है। इस बात को पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने समझा है, और 75 दिनों तक चलने वाला अब तक का सबसे व्यापक समुद्र तटीय स्वच्छता अभियान शुरू किया है। 05 जुलाई को शुरू हुए ‘स्वच्छ सागर - सुरक्षित सागर’ नामक इस अभियान का औपचारिक समापन 17 सितंबर, 2022 को ‘अंतरराष्ट्रीय तटीय स्वच्छता दिवस’ के अवसर पर होगा।

स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में भारत की 7500 किलोमीटर लंबी समुद्री तटरेखा की सफाई के लिए शुरू किया गया ‘स्वच्छ सागर - सुरक्षित सागर’ अभियान नागरिकों की व्यापक भागीदारी के साथ संचालित किया जा रहा है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अलावा, पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, राष्ट्रीय सेवा योजना (NSS), भारतीय तटरक्षक बल, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, सीमा जागरण मंच, एसएफडी, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, पर्यावरण संरक्षण गतिविधि, और अन्य सामाजिक संगठनों एवं शैक्षणिक संस्थानों की भागीदारी से यह अभियान संचालित किया जा रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जन-भागीदारी से तटीय स्वच्छता सुनिश्चित करने के साथ-साथ मैंग्रोव पारिस्थितिक तंत्र के संरक्षण में मदद मिल सकेगी।


इंडिया साइंस वायर

ISW/USM/MoES/Mangroves/Hin/27/07/2022