आर्सेनिक ग्रस्त क्षेत्रों के लिए भारतीय वैज्ञानिकों ने विकसित किया ट्रांसजेनिक चावल                                                                 

चावल की फसल में आर्सेनिक का संचयन एक गंभीर कृषि समस्या है। भारतीय वैज्ञानिकों ने अब फफूंद के अनुवांशिक गुणों का उपयोग करके चावल की ऐसी ट्रांसजेनिक प्रजाति विकसित की है, जिसमें आर्सेनिक संचयन कम होता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस प्रजाति के उपयोग से आर्सेनिक के खतरे से निपटने में मदद मिल सकती है।

इस अध्ययन के दौरान मिट्टी में पाए जाने वाले वेस्टरडीकेल ऑरेनटिआका नामक कवक में उपस्थित आर्सेनिक मेथिलट्रांसफेरेज (वार्सएम) जीन का क्लोन तैयार करके उसे एग्रोबैक्टेरियम ट्यूमेफेसिएन्स जीवाणु की मदद से चावल के जीनोम में स्थानांतरित किया गया है। एग्रोबैक्टेरियम ट्यूमेफेसिएन्स मिट्टी में पाया जाने वाला जीवाणु है, जिसमें पौधे की अनुवांशिक संरचना को बदलने की प्राकृतिक क्षमता होती है। यह अध्ययन लखनऊ स्थित राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (एनबीआरआई) के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है।

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चावल की नयी ट्रांसजेनिक प्रजाति और सामान्य प्रजातियों की तुलना करने के लिए वैज्ञानिकों ने इन दोनों को आर्सेनिक से उपचारित किया है। शोधकर्ताओं ने पाया कि नयी विकसित ट्रांसजेनिक प्रजाति की जड़ों और तनों में संचित आर्सेनिक की मात्रा सामान्य से अपेक्षाकृत कम थी। शोधकर्ताओं का कहना है कि चावल की इस ट्रांसजेनिक प्रजाति में अकार्बनिक आर्सेनिक को मेथिलेट करके विभिन्न हानि रहित कार्बनिक पदार्थ, जैसे- वाष्पशील आर्सेनिकल आदि बनाने की अद्भुत क्षमता होती है। संभवतः इसी कारण न केवल चावल के दानों, बल्कि भूसे और चारे के रूप में उपयोग होने वाली पुआल में भी आर्सेनिक संचयन कम होता है।

शोधकर्ताओं की टीम इस ट्रांसजेनिक प्रजाति के नियामक अनुमोदन हेतु इसके खाद्य सुरक्षा परीक्षण और क्षेत्रीय परीक्षणों पर ध्यान केंद्रित कर रही है। इसके अलावा, शोधकर्ता चावल में आर्सेनिक चयापचय क्रियाओं का अध्ययन करने का प्रयास भी कर रहे हैं, जिससे भविष्य में इसके भीतर आर्सेनिक के प्रवेश और चयापचय क्रियाओं को समझा जा सके।


अध्ययन में शामिल शोधकर्ताओं की टीम

" आर्सेनिक विषाक्तता से काफी लोग प्रभावित हैं। इसलिए चावल की अधिक उपज देने वाली ऐसी प्रजाति विकसित करने की आवश्यकता है, जिसमें आर्सेनिक की कम मात्रा संचयित होती हो। " : डॉ. चक्रवर्ती

इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता डॉ. देवाशीष चक्रवर्ती ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “हमारे अध्ययनों से पौधों, मुख्य रूप से चावल में आर्सेनिक परिवहन प्रक्रिया को समझने में सहायता मिलेगी। इस अध्ययन से प्राप्त परिणामों का उपयोग आणविक प्रजनन, जीन संशोधन या ट्रांसजेनिक तकनीकों द्वारा चावल में आर्सेनिक के संचयन को कम करने के लिए विकसित की जाने वाली विधियों में किया जा सकता है।”

अब शोधकर्ता चावल में आर्सेनिक संचयन को कम करने के लिए जैव प्रौद्योगिकी विधियां विकसित करने में जुटे हुए हैं। इससे पहले किए गए शोधों में चावल की एक ट्रांसजेनिक प्रजाति विकसित की गई थी, जिसमें सिरेटोफिलम डिमर्सम नामक जलीय पौधे के फाइटोचिलेटिन सिंथेज जीन का उपयोग किया गया था। इस ट्रांसजेनिक प्रजाति की जड़ों और तने में आर्सेनिक संचयन अधिक हुआ था। हालांकि, चावल के बीजों में यह कम पाया गया था।

शोधकर्ताओं के अनुसार, चावल में पाए जाने वाले ओएसजीआरएक्स-सी7 नामक प्रोटीन की अधिकता आर्सेनाइट के प्रति सहिष्णुता बढ़ाती है और बीजों एवं तने में आर्सेनाइट संचयन कम करती है। हाल में, ओएसपीआरएक्स-38 वाली ट्रांसजेनिक प्रजातियों में आर्सेनिक का कम संचयन देखा गया है क्योंकि उनकी जड़ों में बड़ी मात्रा में लिग्निन बनता है, जो ट्रांसजेनिक पौधों में आर्सेनिक के अंदर प्रवेश के लिए बाधक की तरह काम करता है।

डॉ. चक्रवर्ती का कहना है कि "आर्सेनिक विषाक्तता से काफी लोग प्रभावित हैं। इसलिए चावल की अधिक उपज देने वाली ऐसी प्रजाति विकसित करने की आवश्यकता है, जिसमें आर्सेनिक की कम मात्रा संचयित होती हो। इस दिशा में चावल में आर्सेनिक चयापचय से संबंधित जीन को संशोधित करने वाली जैव प्रौद्योगिकी विधियां आर्सेनिक संचयन को कम करने के लिए लाभदायी और व्यावहारिक साबित हो सकती हैं।"

शोधकर्ताओं में राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान से जुड़े डॉ चक्रवर्ती के अलावा शिखा वर्मा, पंकज कुमार वर्मा, मारिया किदवई, मंजू श्री एवं रुद्र देव त्रिपाठी और राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान के आलोक कुमार मेहर तथा अमित कुमार बंसिवाल शामिल थे। हाल ही में यह शोध पत्रिका जर्नल ऑफ हैज़र्डस मटैरियल्स में प्रकाशित किया गया है। इंडिया साइंस वायर

भाषांतरण : शुभ्रता मिश्रा