नई तकनीक रोक सकती है गन्नेा में कीटों का आतंक

By Umashankar Mishra

नई दिल्ली: क दशक से भी अधिक समय से गन्नेन की फसल में व्हातइट ग्रब (सफेद गिडार) का आतंक झेल रहे पश्चिमी उत्तशर प्रदेश और उत्त‍राखंड के किसानों को अब इस समस्याे से निजात मिल सकता है। भारतीय शोधकर्ताओं ने इस समस्यात से निपटने के लिए अब एक अनूठा रास्ता ख खोज निकाला है।

गन्नाह एक प्रमुख नकदी फसल है, मगर सफेद गिडार के संक्रमण से इसकी खेती चौपट हो रही है। नई दिल्ली् स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थाटन (आईएआरआई) के वैज्ञानिकों ने सफेद गिडार के जैव नियंत्रण के लिए अब एक नई तकनीक विकसित की है, जिसके सकारात्मएक नतीजे मिले हैं। वैज्ञानिकों ने एंटोमोपैथोजेनिक नेमोटेड (ईपीएन) नामक कीट की पहचान की है, जो सफेद गिडार के नियंत्रण के लिए एक प्रभावी अस्त्रम बन सकता है।

सफेद गिडार गन्नेइ के पौधे पर आश्रित परजीवी है और इसका परजीवी ईपीएन है। ईपीएन की दो प्रमुख प्रजातियों हेटेरोरैब्डाकइटिस और स्टीिनरनेमा की आंतों में खास तरह के सहजीवी बैक्टिरिया होते हैं, जो सफेद गिडार समेत कई अन्यै कीटों को नष्ट् करने के की क्षमता रखते हैं। मुंह, गुदा या फिर पतली चमड़ी वाले अंगों के जरिये ईपीएन सफेद गिडार के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और उनके शरीर में मौजूद जहरीले बैक्टिरिया गिडार को मार देते हैं। गिडार को भोजन बनाकर ईपीएन कीट अपनी आबादी में निरंतर बढ़ोतरी करते रहते हैं। भारतीय शोधकर्ताओं ने सफेद गिडार को नष्टज करने के लिए हेटेरोरैब्डाबइटिस ईपीएन कीट की देसी प्रजाति एच. इंडिका का उपयोग किया है।

"जमीन के भीतर छिपे कीटों को मारने के लिए भी कीटनाशकों का उपयोग कारगर नहीं है। जबकि, सफेद गिडार के प्रबंधन के लिए ईपीएन का उपयोग पर्यावरण हितैषी होने के साथ-साथ आर्थिक रूप से भी अनुकूल पाया गया है। ईपीएन विभिन्न प्रकार के कीटों के परजीवी होते हैं, "

ईपीएन पर आधारित जैव नियंत्रण की इस तकनीक के खेती में टिकाऊ उपयोग के लिए ईपीएन कीटों का व्यानपक स्तनर पर उत्पाकदन जरूरी है। इसके लिए वैज्ञानिकों ने गैलेरिया मेलोनेला नामक कीट का उपयोग किया है, जो ईपीएन कीटों के भोजन का एक अन्यज स्रोत है। पहले गैलेरिया मेलोनेला को ईपीएन कल्चार से संक्रमित किया जाता है और फिर मृत गैलेरिया कीटों का उपयोग गन्नेी की फसल में किया जाता है। इस तरह गिडार के दुश्मजन बैक्टिरिया अपने लक्ष्या तक पहुंचकर उन्हेंञ मार देते हैं।

शोधकर्ताओं की टीम में शामिल डॉ. शरद मोहन ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि बड़ी संख्यात में किसानों को इस तकनीक का प्रशिक्षण दिया जा चुका है, जो सफलतापूर्वक ईपीएन-संक्रमित गैलेरिया का उत्पा दन कर रहे हैं। शरद मोहन के अनुसार अभी इस तकनीक का व्यामवसायीकरण नहीं हुआ है और युवा किसान इन कीटों के उत्पा दन एवं उपयोग की विधि सीख लें तो ग्रामीण इलाकों में रोजगार के नए अवसर पैदा हो सकते हैं।

वर्ष 2008 से 2014 के बीच उत्तसर प्रदेश के गाजियाबाद, मेरठ, अमरोहा, सहारनपुर, गजरौला, बुलंदशहर और हापुड़ समेत सात जिलों किए गए फील्डत ट्रायल के बाद आईएआरआई के वैज्ञानिकों ने पाया है कि जैव नियंत्रण की यह तकनीक गन्नेि की फसल को कीटों से बचाने में कारगर साबित हो सकती है। शोधकर्ताओं के मुताबिक ईपीएन-सं‍क्रमित गैलेरिया मेलोनेला कीटों के जरिये एक एकड़ खेत के उपचार की लागत करीब 1500 रुपये आती है।

सफेद गिडार पौधों की जड़ों को खाती है, जिसके कारण पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं और पौधे का विकास नहीं हो पाता है। संक्रमण अधिक होने पर पौधे मर जाते हैं। इस समस्याी से निपटने के लिए आमतौर पर ऑर्गेनोफास्फेहट और कार्बामेट जैसे सिंथेटिक कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है। लेकिन, इन कीटनाकशकों का उपयोग पर्यावरण हितैषी नहीं माना जाता और एक समय के बाद कीटों में इनके प्रति प्रतिरोधक क्षमता भी विकसित होने लगती है।

जमीन के भीतर छिपे कीटों को मारने के लिए भी कीटनाशकों का उपयोग कारगर नहीं है। जबकि, सफेद गिडार के प्रबंधन के लिए ईपीएन का उपयोग पर्यावरण हितैषी होने के साथ-साथ आर्थिक रूप से भी अनुकूल पाया गया है। ईपीएन विभिन्न प्रकार के कीटों के परजीवी होते हैं, जो दुनिया भर के कृषि एवं प्राकृतिक वातावरण में पाए जाते हैं। लार्वा के स्तकर पर सफेद गिडार के नियंत्रण के लिए इन्हेंन दुनिया भर में प्रभावी जैव नियंत्रक के तौर पर स्वींकार किया गया है।

खुले वातावरण में ईपीएन को गैलेरिया मेलोनेला (ग्रेटर वैक्सै मोथ) कीट के लार्वा पर पाला जा सकता है। जबकि गैलेरिया को घर अथवा लैब में प्लािस्टिक के बॉक्सग या फिर लकड़ी की ट्रे में गेहूं, मक्का , गेहूं अथवा धान की भूसी, वैक्सल, शहद या फिर ग्लिसरॉल पर पाल सकते हैं। गैलेरिया और ईपीएन के निशुल्कम बीज प्राप्त करने के लिए आईएआरआई के सूत्रकृमि विज्ञान विभाग से संपर्क किया जा सकता है। आईएआरआई से इस तकनीक का निशुल्कि प्रशिक्षण भी लिया जा सकता है।

यह अध्यलयन हाल में करंट साइंस जर्नल में प्रकाशित किया गया है। अध्यीयनकर्ताओं की टीम में अकांक्षा उपाध्यालय, आरोही श्रीवास्तव और के. श्रीदेवी शामिल थे। (India Science Wire)

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