कन्फेक्शनरी के काम आएगी मूंगफली की नई किस्म                                                                 

भारतीय वैज्ञानिकों ने मूंगफली की ऐसी किस्म विकसित की है जो किसानों की आमदनी बढ़ाने की दिशा में महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि देश के किसान कन्फेक्शनरी उत्पादों में बहुतायत में उपयोग होने वाली तेल की उच्च मात्रा युक्त मूंगफली इस नई किस्म की खेती करके फायदा उठा सकते हैं। जल्दी ही मूंगफली की यह किस्म भारत में जारी की जा सकती है।

मूंगफली की इस किस्म को हैदराबाद स्थित अंतरराष्ट्रीय अर्ध-शुष्क उष्ण-कटिबंधीय फसल अनुसंधान संस्थान (इक्रीसैट) के शोधकर्ताओं ने देश के अन्य शोध संस्थानों के साथ मिलकर विकसित किया है। इसे विकसित करने वाले शोधकर्ताओं का कहना है कि “यह स्पैनिश एवं वर्जिनिया गुच्छे वाली मूंगफली की प्रजाति है, जिसे भारत में खेती के लिए अनुकूलित किया गया है।”

कई कन्फेक्शनरी उत्पादों में मूंगफली इस किस्म का उपयोग होता है और इसका बाजार तेजी से बढ़ रहा है। लेकिन मूंगफली की खेती करने वाले भारत के किसानों को कन्फेक्शनरी के बढ़ते बाजार का फायदा नहीं मिल पा रहा था क्योंकि इस उद्योग में उपयोग होने वाली उच्च तेल की मात्रा युक्त मूंगफली वे मुहैया नहीं करा पा रहे थे। मूंगफली की इस किस्म की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए यह नई प्रजाति विकसित की गई है। शोधकर्ताओं का कहना है कि मूंगफली की इस प्रजाति की मांग काफी अधिक है और इसकी खेती करने से देश के छोटे किसानों को खासतौर पर फायदा हो सकता है।

चॉकलेट और प्रसंस्कृत नाश्ते जैसे मूंगफली आधारित कन्फेक्शनरी उत्पादों के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां ऑस्ट्रेलिया एवं अमेरिका जैसे देशों से हजारों टन मूंगफली एशियाई देशों में स्थित अपनी प्रसंस्करण इकाइयों में आयात करती हैं। आयात के खर्च और मूंगफली की बढ़ती वैश्विक कीमतों के कारण कंपनियां अब एशिया एवं अफ्रीका में स्थित भारत जैसे देशों में ऐसे अवसर तलाशने में जुटी हैं, जिससे उन्हें मूंगफली स्थानीय रूप से ही उपलब्ध हो जाए।

ग्रीनहाउस में विकसित किए गए मूंगफली के नए पौधों के साथ डॉ. जैनीला

" वैज्ञानिकों के अनुसार मूंगफली की इन किस्मों में सामान्य मूंगफली की अपेक्षा ऑक्सीकरण 10 गुना कम होता है, जिसके कारण इसकी शेल्फ-लाइफ दो से नौ महीने तक बढ़ जाती है। "

शोधकर्ताओं में शामिल इक्रीसैट की मूंगफली ब्रीडर डॉ. जैनीला के अनुसार “हमने तेल की उच्च मात्रा युक्त मूंगफली की किस्म के बढ़ते बाजार की संभावनाओं को पहले ही भांप लिया था। हमारी कोशिश भारतीय किसानों द्वारा उगायी जा रही स्थानीय मूंगफली किस्मों की क्रॉस-ब्रीडिंग उच्च ओलीइक एसिड युक्त अमेरिकी किस्म सॉनोलिक-95आर से कराकर एक नई किस्म विकसित करके उसे बाजार में शामिल करने की थी। तेल की उच्च मात्रा युक्त मूंगफली की विकसित की गई नई किस्में इसी पहल का परिणाम हैं, जो भारतीय जलवायु दशाओं के अनुकूल होने के साथ-साथ कन्फेक्शनरी उद्योग में भी उपयोगी हो सकती हैं।”

वैज्ञानिकों के अनुसार मूंगफली की इन किस्मों में सामान्य मूंगफली की अपेक्षा ऑक्सीकरण 10 गुना कम होता है, जिसके कारण इसकी शेल्फ-लाइफ दो से नौ महीने तक बढ़ जाती है। मूंगफली की यह प्रजाति अन्य किस्मों की अपेक्षा स्वादिष्ट होती है और लंबे समय तक रखे रहने से भी इसके स्वाद एवं गंध में बदलाव नहीं होता। इसमें पाए जाने वाले ओलेइक एसिड या ओमेगा-9 फैटी एसिड जैसे तत्व सेहत के लिए काफी फायदेमंद माने जाते हैं।

विकसित की गई प्रजातियों का भारत समेत शोध में शामिल अन्य पार्टनर देशों तंजानिया, यूगांडा, घाना, माली, नाईजीरिया, म्यांमार और ऑस्ट्रेलिया में भी परीक्षण किया गया है। संशोधित किस्मों की उत्पादकता स्थानीय मूंगफली प्रजातियों की अपेक्षा अधिक पायी गई है।

फिलहाल भारत के किसान वर्षा आधारित कृषि क्षेत्रों के लिए अनुकूलित मूंगफली की गुच्छे जैसी किस्मों की खेती करते हैं। इन किस्मों में ओलीइक एसिड की मात्रा कुल फैटी एसिड की 45 से 50 प्रतिशत तक होती है। जबकि ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में उगायी जाने वाली मूंगफली की कई किस्मों में ओलीइक एसिड की मात्रा 80 प्रतिशत तक होती है। वैज्ञानिकों द्वारा किए गए जीन कोडिंग में विशिष्ट रूपांतरणों के जरिये यह संभव हो सका है।

बाजार आधारित यह रणनीतिक अनुसंधान इक्रीसैट और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के बीच सहयोग पर आधारित एक पहल का नतीजा है। इसमें जूनागढ़ स्थित मूंगफली अनुसंधान निदेशालय, जूनागढ़ कृषि विश्वविद्यालय, तेलंगाना स्टेट एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय और तिरुपति स्थित आचार्य एन.जी. रंगा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक शामिल हैं।

अध्ययनकर्ताओं की टीम में डॉ. जैनीला के अलावा मनीष कुमार पांडेय, यद्रु शशिधर, मुरली टी. वैरिएथ, मांडा श्रीस्वाति, पवन खेड़ा, सुरेंद्र एस. मनोहर, पाटने नागेश, मनीष के. विश्वकर्मा, ज्ञान पी. मिश्रा, टी. राधाकृष्णन, एन. मनिवन्नन, के.एल. डोबरिया, आर.पी. वसंती और राजीव के. वार्ष्णेय शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका प्लांट साइंस में प्रकाशित किया गया है। (India Science Wire)