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रबड़ के पेड़ों से मिल सकेगा दोहरा लाभ                                                                 

एक पूर्ण विकसित रबड़ बागान (फोटो : एस सुरेश रमणन)

भारत में सात लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि पर रबड़ बागान हैं। पर, रबड़ की गिरती कीमतों, कम लाभ और श्रम की अत्यधिक लागत के चलते यह उद्योग बुरे दौर से गुजर रहा है। यही कारण है कि रबड़ बागानों के प्रबंधन और रणनीति में सुधार की आवश्यकता महसूस की जा रही है। रबड़ का पेड़, जिसका वानस्पतिक नाम हैविया ब्राजीलिएन्सिस है, भारत में केरल और उत्तर-पूर्वी राज्यों में प्रमुख तौर पर उगाया जाता है। रबड़ के पेड़ में चीरा लगाकर मिलने वाले लेटेक्स का उपयोग टायर उत्पादन, सर्जिकल ग्लोव्स और कान्डोम जैसे उत्पाद बनाने में किया जाता है।

बेहतरीन उत्पादन वाले रबड़ के पेड़ों की उत्पादन क्षमता भी करीब 25 साल बाद कम होने लगती है और अंततः वे गिर जाते हैं। उनके स्थान पर रबड़ के पेड़ों का रोपण किया जाता है। लेकिन, बड़े पैमाने पर नष्ट होने वाले इन रबड़ के पेड़ों की लकड़ी का उपयोग पैकिंग जैसे कुछेक कार्यों को छोड़कर नहीं हो पाता। खराब गुणवत्ता के कारण इस लकड़ी से फर्नीचर नहीं बनाए जा सकते। लेकिन, काष्ठ विज्ञान और इससे संबंधित प्रौद्योगिकी में हो रहे वैज्ञानिक सुधारों से फिंगर ज्वाइंटिंग तकनीक और संरक्षित अनुप्रयोग जैसी नयी तकनीकें विकसित हुई हैं, जिनकी मदद से रबड़ के पेड़ों के नये उपयोगों के बारे में पता चला है। रबड़वुड फर्नीचर का निर्माण इनमें से एक है। इन दिनों बाजार में खूबसूरत और कम कीमत वाले रबड़वुड फर्नीचर काफी प्रचलन में हैं।

मलेशिया जैसे रबड़ उत्पादक देशों में रबड़ के ऐसे पेड़ विकसित करने के प्रयास किए गए हैं, जिनका उपयोग शुरू में लेटेक्स उत्पादन के लिए किया जाता है और जब इन पेड़ों की लेटेक्स उत्पादन क्षमता कम हो जाती है तो गिरे हुए पेड़ों की लकड़ी का उपयोग अन्य कामों में करते हैं। इस तरह रबड़ के पेड़ों से दोहरा लाभ और आमदनी प्राप्त की जा सकती है। भारत के रबड़ सुधार कार्यक्रमों में लेटेक्स उत्पादन में वृद्धि पर तो जोर दिया जाता है, पर रबड़ के पेड़ की लकड़ी की गुणवत्ता में सुधार की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। इस स्थिति में अब बदलाव हो सकता है। कई पूर्व शोधों में भी यह बात साबित हो चुकी है कि सेलेक्टिव ब्रीडिंग और संकरण कार्यक्रमों के जरिये उष्ण कटिबंधीय पेड़ों की लकड़ी के गुणों में सुधार किया जा सकता है।


" केरल के कोट्टयम में स्थित रबड़ रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के वैज्ञानिकों ने हाल में ऐसे रबड़ क्लोन तैयार करने की दिशा में पहल की है, जिनका दोहरा उपयोग किया जा सकता है। "

केरल के कोट्टयम में स्थित रबड़ रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के वैज्ञानिकों ने हाल में ऐसे रबड़ क्लोन तैयार करने की दिशा में पहल की है, जिनका दोहरा उपयोग किया जा सकता है। उन्होंने बड़े पैमाने पर उगाए जाने वाले उच्च लेटेक्स उत्पादन वाले रबड़ क्लोन्स के संकरण से प्राप्त रबड़ वृक्षों की 11 संततियों के गुणों में विविधता और उनके आनुवांशिक लक्षणों का अध्ययन किया है। वैज्ञानिकों ने भार और फाइबर संबंधी लक्षणों का आकलन करने के लिए विभिन्न रबड़ वंश की लकड़ी के नमूनों के साथ-साथ उनके पैतृक क्लोन्स नमूने एकत्रित किये हैं। पेड़ों में उनकी लकड़ी का विशिष्ट भार एक उच्च आनुवांशिक गुण होता है, इसी से लकड़ी की उपयोगिता निर्धारित होती है। लकड़ी के गुणों और पेड़ों की वृद्धि के लक्षणों के विश्लेषण से वैज्ञानिकों ने पाया कि लकड़ी के विशिष्ट भार का वृद्धि लक्षणों के साथ कोई खास संबंध नहीं होता है। इसी आधार पर वैज्ञानिकों का मानना है कि रबड़ के पेड़ में उसकी वृद्धि और लेटेक्स उत्पादन को नुकसान पहुंचाए बिना उसकी लकड़ी के विशिष्ट भार में स्वतंत्र रूप से संशोधन किए जा सकते हैं।

लकड़ी के रेशों की लंबाई तथा उसके व्यास, अंतःकाष्ठ के व्यास और रेशे की बाहरी परत की मोटाई आदि से उसके संरचनात्मक, भौतिक और रासायनिक गुण निर्धारित होते हैं। यही कारण है कि अधिकतर वृक्ष सुधार कार्यक्रमों में पेड़ों के आनुवांशिक गुणों और उनके अनुवांशिक नियंत्रण की जानकारी महत्वपूर्ण मानी जाती है। इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पाया है कि रबड़ के पेड़ की वृद्धि का रेशे के व्यास के साथ-साथ रेशे की बाहरी परत की मोटाई के बीच सकारात्मक आनुवांशिक संबंध होता है। इसलिए बेहतर वृद्धि वाले पेड़ से रेशों के गुण में भी सुधार हो सकता है। हालांकि, वैज्ञानिकों ने रेशे की लंबाई और पेड़ की वृद्धि के बीच विपरीत संबंध पाया गया है। इसलिए, उत्तम वृद्धि और लंबे रेशों का एक साथ मिल पाना संभव नहीं है। यह शोध ट्री जेनेटिक्स एंड जीनोम्स जर्नल में प्रकाशित हुआ है।

लुगदी और कागज उत्पादन में रेशे की लंबाई महत्वपूर्ण मानी जाती है। यदि रबड़ के पेड़ से लुगदी और कागज उत्पादन करना है तो पौध-प्रजनन की विभिन्न तकनीकों की आवश्यकता होगी। इस अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता डॉ नारायणन चेंदेकट्टु ने बताया कि, "यदि रबड़ के पेड़ों को केवल रबड़ प्राप्त करने के लिए उपयोग न किया जाए तो तेजी से तैयार किए जा रहे रबड़ क्लोन लुगदी और कागज उद्योग के लिए एक संभावित स्रोत हो सकते हैं, जिसका अब तक इस तरह उपयोग नहीं किया गया है। हमारे अध्ययन और मौजूदा जानकारी के आधार पर वैज्ञानिकों को विश्वास है कि लुगदी और कागज उत्पादन के लिए उपयुक्त लकड़ी के लक्षणों में कुशलतापूर्वक सुधार किया जा सकता है। रबड़वुड में लचीलापन गुणांक और रंकल अनुपात जैसे उत्तम आनुवांशिक गुण होते हैं, इसलिए हम निश्चित रूप से इस पर काम कर सकते हैं। इसके लिए एक समर्पित दीर्घकालिक रबड़ पौध-प्रजनन कार्यक्रम की आवश्यकता होगी, जिसकी पहल हमने पहले ही रबड़ रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया में शुरू कर दी है।"

रबड़ के पेड़ों में संकरण और चयन के माध्यम से क्लोन विकसित करने की पारंपरिक विधि वास्तव में एक दीर्घकालिक कार्यक्रम है। डॉ. चीन्दीकट्टू का कहना है कि, "इसलिए, हम लंबे समय तक स्थिर और लगातार परिणाम की उम्मीद करते हैं और कोई शॉर्टकट नहीं अपना रहे हैं"। यह शोध उत्पादकता में सुधार के लिए वृक्ष-प्रजनन कार्यक्रमों के महत्व पर प्रकाश डालता है और वृक्ष-प्रजनन परियोजनाओं को शुरू करने से पहले मूलभूत तथ्यों को समझने की आवश्यकता पर भी जोर देता है। शोधकर्ताओं में रबड़ रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के नारायणन चेंदेकट्टु और के.के. मैदिन शामिल हैं। (इंडिया साइंस वायर)

भाषांतरण : शुभ्रता मिश्रा