बिभा चौधरी – भारतीय भौतिक विज्ञान का एक गुमनाम सितारा                                                                 

भारत में कण भौतिकी का इतिहास होमी जहांगीर भाभा, विक्रम साराभाई, एम.जी.के. मेनन जैसे वैज्ञानिकों और बंगलूरू स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान, मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर) एवं अहमदाबाद स्थित भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला (पीआरएल) के कार्यों से जुड़े संदर्भों से भरा पड़ा है। लेकिन, भाभा और साराभाई के साथ काम कर चुकी बिभा चौधरी (1913-1991) के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं।

बिभा चौधरी ने नोबेल पुरस्कार विजेता भौतिकशास्त्री पी.एम.एस. ब्लैकेट के साथ भी काम किया था। ब्लैकेट स्वतंत्र भारत में वैज्ञानिक अनुसंधान की शुरुआत करने से संबंधित मामलों पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के सलाहकार थे।

एम.जी.के मेनन के नेतृत्व में कोलार गोल्ड फील्ड (केजीएफ) में प्रोटॉन क्षय परीक्षण में भी चौधरी शामिल थीं। भौतिकी के क्षेत्र में अपने कई दशक लंबे करियर के दौरान चौधरी ने प्रतिष्ठित जर्नल नेचर समेत विभिन्न अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में कई शोध पत्र प्रकाशित किए। वह जीवनभर एक शोधकर्ता के रूप में ही कार्य करती रहीं। उनका अंतिम शोध पत्र सह-लेखक के रूप में वर्ष 1990 में उनकी मृत्यु से एक साल पहले इंडियन जर्नल ऑफ फिजिक्स में प्रकाशित किया गया।

देश और विदेश में भौतिक विज्ञान से जुड़ी बिरादरी के नामचीन लोगों के साथ काम करने के बावजूद चौधरी भारतीय विज्ञान क्षेत्र का एक गुमनाम नायक ही बनी रहीं। उन्हें भारत की तीन प्रमुख अकादमियों से न तो कोई फेलोशिप मिली और न ही किसी पुरस्कार के लिए उन्हें चुना गया। क्या यह लैंगिक भेदभाव का एक विशिष्ट मामला था? दो प्रमुख विज्ञान इतिहासकारों, डॉ राजिंदर सिंह और सुप्रकाश सी. रॉय ने अपनी नयी पुस्तक
'ए ज्वैल अनअर्थेड: बिभा चौधरी में इस सवाल का जवाब तलाशने का प्रयास किया है।


" देश और विदेश में भौतिक विज्ञान से जुड़ी बिरादरी के नामचीन लोगों के साथ काम करने के बावजूद चौधरी भारतीय विज्ञान क्षेत्र का एक गुमनाम नायक ही बनी रहीं। उन्हें भारत की तीन प्रमुख अकादमियों से न तो कोई फेलोशिप मिली और न ही किसी पुरस्कार के लिए उन्हें चुना गया। "

जर्मनी के ओल्डनबर्ग विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले डॉ राजिंदर सिंह ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि "यहां लैंगिक भेदभाव का अर्थ है कि वह तीन विज्ञान अकादमियों में से किसी के सदस्य के रूप में निर्वाचित नहीं हुई थी, हालांकि, उनका काम उच्च गुणवत्ता का था। केजीएफ में किए गए ब्रह्मांडीय अणु अनुसंधान से जुड़े उल्लेख में चौधरी का नाम तक नहीं लिखा गया।" डॉ सिंह के पूर्व में किए गए कार्यों में सी.वी. रामन पर लिखी गई किताब भी शामिल है, जिसमें उन्होंने उस मिथक की पड़ताल की है कि रामन ने खराब वित्त पोषित प्रयोगशाला में रहकर नोबेल पुरस्कार दिलाने से संबंधित शोध कार्य किया था।

विज्ञान अकादमियों की सदस्यता के लिए चौधरी के नामांकन के सवाल पर डॉ सिंह ने कहा, "हर साल सैकड़ों व्यक्तियों को नामांकित किया जाता है और अकादमियां आमतौर पर इस जानकारी को प्रकाशित नहीं करती हैं। इसलिए, यह कहना मुश्किल है कि चौधरी को नामित किया गया था और फिर उनका नाम खारिज कर दिया गया। पर, तथ्य तो यही है कि वह इन अकादमियों की फेलो नहीं बन सकीं। "पुस्तकें इस बात को इंगित करती हैं कि भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (इन्सा) में भौतिकी के अध्येताओं में वर्ष 2012 तक सिर्फ 3.3 प्रतिशत महिलाएं शामिल थीं। इसी तरह की एक पुस्तक भारतीय विज्ञान संस्थान द्वारा प्रकाशित की गई है, जिसमें विक्टोरिया युग से वर्तमान समय तक की 100 भारतीय महिला वैज्ञानिकों को शामिल किया गया है, पर चौधरी उसमें भी नहीं हैं।

वह कलकत्ता विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग में 1934-36 के एमएससी (भौतिकी) के 24 छात्रों के बैच में एकमात्र छात्रा थीं। पोस्ट ग्रेजुएट करने के बाद वह उसी भौतिकी विभाग में प्रोफेसर डी.एम. बोस की देखरेख में शोध करने के लिए जुड़ गईं। कुछ समय बाद बोस इंस्टीट्यूट का निदेशक बनने के बाद डी.एम. बोस बिभा चौधरी समेत अपने कुछेक शोध छात्रों को साथ ले गए।

बोस इंस्टीट्यूट में, वर्ष 1938 और 1942 के बीच डी.एम. बोस के साथ मिलकर चौधरी ने फोटोग्राफिक प्लेटों का उपयोग करके मेसॉन की खोज पर काम किया और इससे संबंधित लगातार तीन शोध पत्र नेचर पत्रिका में प्रकाशित किए। युद्ध के दौरान संवेदनशील इमल्शन प्लेटों की कमी के चलते वह आगे काम जारी नहीं रख सकीं। शायद इसी वजह से उन्होंने पीएचडी के लिए मैनचेस्टर विश्वविद्यालय जाने का फैसला किया। वर्ष 1945 में वह पी.एम.एस. ब्लैकेट की ब्रह्मांडीय किरणों की शोध प्रयोगशाला से जुड़ गईं। इसके करीब चार साल बाद ब्लैकेट को भौतिकी का नोबेल मिला। उनकी डॉक्टरेट थीसिस "एक्सटेंसिव एयर शॉवर्स एसोसिएटेड विद पेनिट्रेटिंग पार्टिकल्स" पर थी।

भाभा ब्रह्मांडीय किरणों के क्षेत्र में ही काम कर रहे थे, इसलिए उन्होंने चौधरी के थीसिस परीक्षकों से उनके बारे में पूछताछ की और अंततः उन्हें टीआईएफआर में शामिल होने के लिए भर्ती कराया। वर्ष 1949 में वह टीआईएफआर से जुड़ने वाली पहली महिला शोधकर्ता थीं, जो 1957 तक वहां रहीं। एम.जी.के. मेनन और यश पाल टीआईएफआर में उनके समकालीन थे। उन्होंने टीआईएफआर के सहयोगियों के साथ वर्ष 1955 में इटली में पीसा में आयोजित मूल अणुओं पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भी भाग लिया।

चौधरी 1960 की शुरुआत से ही केजीएफ परियोजना में शामिल थीं, और पीआरएल जाने के बाद उन्होंने राजस्थान के माउंट आबू में एक और प्रयोग का प्रस्ताव दिया। वह व्यापक वायु बौछार से जुड़ी रेडियो आवृत्ति के उत्सर्जन का अध्ययन करना चाहती थीं। पुस्तक के मुताबिक, पीआरएल के निदेशक साराभाई की मौत के बाद शोध कार्यक्रम की दिशा ही बदल गई और "पीआरएल ने उन्हें प्रयोग को आगे बढ़ाने की अनुमति नहीं दी।" इसके बाद, उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली और कलकत्ता में अकादमिक और शोध कार्य में वापस लौट गईं।

पुस्तक में, जो एक अन्य बड़ा सवाल उठाया गया है, वह है कि “एम.एन. साहा, एस.एन. बोस, एच.जे. भाभा और विक्रम साराभाई जैसे भारतीय भौतिक वैज्ञानिकों का महिला वैज्ञानिकों के साथ किस तरह का बर्ताव था। एक तथ्य यह भी है कि उच्च दर्जे के भौतिक वैज्ञानिक के रूप में बिभा चौधरी को भाभा ने सम्मान नहीं दिया। वर्ष 1930 में सी.वी. रामन की भी आलोचना इस बात को लेकर हुई कि वह भारतीय विज्ञान संस्थान में महिला छात्रों को लेना नहीं चाहते थे।” इंडिया साइंस वायर

भाषांतरण : उमाशंकर मिश्र