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हिमालय की गोद में ‘बैंगनी क्रांति’                                                                 

      

भिनव कृषि पद्धति के माध्यम से किसानों के जीवन में खुशहाली लायी जा सकती है। देश की आत्मनिर्भरता का पर्याय कही जाने वाली ‘हरित क्रांति’ की तर्ज पर अब खेतों में 'बैंगनी क्रांति' की बारी है। हिमालय की गोद में बसे जम्मू-कश्मीर के डोडा जिले के सुदूर गाँव खिलानी के युवा किसान भारतभूषण की ‘बैंगनी’ सफलता इस दिशा में एक मिसाल है।

केंद्रीय मंत्री डॉ जितेंद्र सिंह डोडा जिले के इस नवाचारी किसान का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि “भारतभूषण ने सीएसआईआर-इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंटिग्रेटिव मेडिसिन (आईआईआईएम) के सहयोग से लगभग 0.1 हेक्टेयर भूमि में लैवेंडर की खेती शुरू की। लैवेंडर की खेती से लाभ हुआ, तो उन्होंने घर के आसपास मक्के के खेत के एक बड़े क्षेत्र को भी लैवेंडर के बागान में बदल दिया। करीब 20 लोग आज उनके लैवेंडर के खेत और पौधशाला (नर्सरी) में काम कर रहे हैं। वहीं, डोडा जिले के लगभग 500 अन्य किसान भी भारतभूषण का अनुसरण कर रहे हैं। उन्होंने भी मक्के की खेती छोड़कर बारहमासी फूल वाले लैवेंडर की खेती शुरू कर दी है।”

केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के किसानों ने जलवायु परिवर्तन की आहट को समय रहते पहचान लिया है, और उसी के अनुरूप अनुकूलन स्थापित करने में जुट गए हैं। जलवायु परिवर्तन की चुनौती को देखते हुए जम्मू-कश्मीर के किसानों ने मक्का की खेती छोड़कर सुगंधित तेल (ESSENTIAL OIL) उत्पादन में उपयोग होने वाले सगंध पौधों की खेती की ओर रुख किया है। लैवेंडर, जिसकी वैश्विक इत्र उद्योग में बेहद माँग है, की खेती का अगुआ बनकर अब 'बैंगनी क्रांति' की मिसाल पेश कर रहा है जम्मू-कश्मीर।

बैंगनी रंग के लैवेंडर के फूलों के कारण इसकी खेती को ‘बैंगनी क्रांति’ नाम दिया गया है। लैवेंडर के फूलों से निकाला गया सुगंधित तेल 10,000 रुपये प्रति किलो से अधिक मूल्य में बिक सकता है। हालाँकि, भारत में कुछ समय पहले तक ज्यादा लैवेंडर नहीं उगाया जा रहा था। किसानों की आमदनी बढ़ाने और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में लैवेंडर जैसे सुगंधित पौधों की भूमिका देखते हुए पिछले कुछ वर्षों से वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) लैवेंडर की खेती को बढ़ावा दे रहा है।


अभिनव कृषि पद्धति के माध्यम से किसानों के जीवन में खुशहाली लायी जा सकती है। देश की आत्मनिर्भरता का पर्याय कही जाने वाली ‘हरित क्रांति’ की तर्ज पर अब खेतों में 'बैंगनी क्रांति' की बारी है। हिमालय की गोद में बसे जम्मू-कश्मीर के डोडा जिले के सुदूर गाँव खिलानी के युवा किसान भारतभूषण की ‘बैंगनी’ सफलता इस दिशा में एक मिसाल है।

देश के विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों में स्थित सीएसआईआर की विभिन्न घटक प्रयोगशालाएं, जिनमें केंद्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान (सीमैप), हिमालय जैवसंपदा प्रौद्योगिकी संस्थान (आईएचबीटी), इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंटिग्रेटिव मेडिसिन (आईआईआईएम), भारतीय विषविज्ञान अनुसंधान संस्थान (आईआईटीआर), उत्तर-पूर्व विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी संस्थान (एनईआईएसटी) और राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (एनबीआरआई) सुगंधित पौधों की खेती, प्रसंस्करण और मूल्यवर्धन को बढ़ावा देने में अपनी क्षमता और विशेषज्ञता के लिए जानी जाती हैं। सीएसआईआर की इन प्रयोगशालाओं ने बेहतर उपज एवं कम लागत में जल्द तैयार होने वाली किस्मों के विकास, उन्नत कृषि-प्रौद्योगिकियों के विकास; और जागरूकता एवं कौशल विकास कार्यक्रमों के माध्यम से लैवेंडर समेत अन्य सगंध पौधों की खेती को बढ़ावा देने में प्रभावी भूमिका निभायी है।

भारतीय शोधकर्ताओं ने देश के भिन्न भौगोलिक क्षेत्रों के लिए विशिष्ट प्रकार का लैवेंडर का पौधा विकसित किया है, जो वातावरण के साथ अनुकूलन स्थापित करने में सक्षम है और खराब मिट्टी में भी उग सकता है। कीटों और रोगों के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता रखने वाली लैवेंडर की विशिष्ट किस्म की खेती से किसानों को बेहतर उत्पादन मिल रहा है। एक बार उगाने के बाद यह तीसरे वर्ष तक लैवेंडर का तेल देना शुरू कर देता है। लैवेंडर के फूल देखने में लाल, बैंगनी, नीले और काले रंग के होते है और इसका पौधा दो से तीन फीट ऊँचा होता है। इसका पूर्ण विकसित पौधा 10 वर्ष या उससे अधिक समय तक पैदावार दे सकता है।

बैंगनी रंग के फूल लैवेंडर के खेतों को एक विशिष्ट बैंगनी रंग देते हैं। इन फूलों के साधारण हाइड्रो स्टीम डिस्टिलेशन के बाद तेल का उत्पादन किया जाता है, जो इत्र, साबुन और यहाँ तक कि खाद्य पदार्थों में उपयोग होता है। लैवेंडर के तेल का उपयोग अरोमाथेरेपी में भी किया जाता है। यह उच्च मूल्य की फसल शिक्षित बेरोजगार युवाओं को लाभकारी रोजगार के माध्यम से समग्र विकास का अवसर प्रदान कर रही है।

भारत आज लैवेंडर तेल का शुद्ध आयातक है। जम्मू स्थित सीएसआईआर-इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंटिग्रेटिव मेडिसिन (आईआईआईएम) ने भारत को लैवेंडर तेल का निर्यातक बनाने का लक्ष्य रखा है। भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय का अरोमा मिशन इस चुनौती से लड़ने और आजीविका सुरक्षित रखने में किसानों के लिए मददगार साबित हुआ है। वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) द्वारा संचालित ‘अरोमा मिशन’ की इस दिशा में प्रभावी भूमिका रही है। इसी का परिणाम है कि जम्मू-कश्मीर के डोडा, किश्तवाड़, राजौरी, रामबन और पुलवामा समेत कई जिलों में लैवेंडर की खेती ‘बैंगनी क्रांति’ के रूप में आकार ले रही है। ‘अरोमा मिशन’ का दायरा लैवेंडर की खेती से लेकर इसके प्रसंस्करण और विपणन तक फैला हुआ है। यह पहल भारतीय किसानों और सुगंध उद्योग को सुगंधित तेलों के उत्पादन और निर्यात में वैश्विक स्तर पर अग्रिम पंक्ति में खड़ा करने से जुड़ी कवायद का एक प्रमुख हिस्सा है। किसानों की बेहतर आमदनी, फसलों की रक्षा और बंजर भूमि के समुचित उपयोग के माध्यम से जन-सशक्तिकरण को बढ़ावा देना मिशन के उद्देश्यों में शामिल है।

केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार), पृथ्वी विज्ञान राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार), पीएमओ, कार्मिक, लोक शिकायत, पेंशन, परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष राज्य मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह भारत सरकार द्वारा शुरू की गई "स्टार्ट-अप इंडिया" पहल में भी "बैंगनी क्रांति" के योगदान को महत्वपूर्ण मानते हैं। डॉ जितेंद्र सिंह बताते हैं कि “सीएसआईआर ने कई जिलों में खेती के लिए जम्मू स्थित अपनी प्रयोगशाला- इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंटीग्रेटिव मेडिसिन (आईआईआईएम) के माध्यम से लैवेंडर की खेती शुरू करायी है। आरंभ में डोडा, किश्तवाड़, राजौरी; और इसके बाद अन्य जिलों; जिनमें रामबन और पुलवामा आदि शामिल हैं, में लैवेंडर की खेती शुरू हुई है। बेहद कम समय में ही अरोमा/लैवेंडर की खेती कृषिगत स्टार्ट-अप के लिए कृषि में लोकप्रिय विकल्प बन गई है।”

डॉ. सिंह बताते हैं कि भारत सरकार की जम्मू स्थित प्रयोगशाला सीएसआईआर-आईआईआईएम लैवेंडर की खेती में संलग्न स्टार्ट-अप्स को उनकी उपज बेचने में सहायता कर रही है। मुंबई स्थित अजमल बायोटेक प्राइवेट लिमिटेड, अदिति इंटरनेशनल और नवनैत्री गमिका जैसी प्रमुख कंपनियां इसकी प्राथमिक खरीदार हैं। आजादी का अमृत महोत्सव के अवसर पर डॉ. जितेंद्र सिंह ने घोषणा की कि सीएसआईआर ने अरोमा मिशन का पहला चरण पूरा होने के बाद इसका दूसरा चरण शुरू किया है। सीएसआईआर-आईआईआईएम के अलावा अब सीएसआईआर-आईएचबीटी, सीएसआईआर-सीआईएमएपी, सीएसआईआर-एनबीआरआई और सीएसआईआर-एनईआईएसटी भी अरोमा मिशन में हिस्सा ले रहे हैं।

अरोमा मिशन पूरे देश के स्टार्ट-अप्स और कृषकों को आकर्षित कर रहा है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अनुसार, इसके पहले चरण के दौरान सीएसआईआर ने 6000 हेक्टेयर भूमि पर खेती में सहायता की। इस मिशन को देश के 46 आकांक्षी जिलों में संचालित किया गया। इसके तहत 44,000 से अधिक लोगों को प्रशिक्षित किया गया है। अरोमा मिशन के दूसरे चरण में देश के 75,000 से अधिक कृषक परिवारों को लाभान्वित करने के उद्देश्य से 45,000 से अधिक कुशल मानव संसाधनों को इसमें शामिल किया जाना प्रस्तावित है।


इंडिया साइंस वायर

ISW/USM/CSIR/AROMA MISSION/HIN/14/03/2022

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