स्टार्च, छाछ और ईसबगोल से बनी ईको-फ्रेंडली पैकेजिंग झिल्ली                                                                 

कमल के तने के स्टार्च से बनी झिल्ली

भारतीय शोधकर्ताओं ने कमल के तने के स्टार्च, दही के पानी के संकेंद्रित प्रोटीन और ईसबगोल को मिलाकर जैविक रूप से अपघटित होने में सक्षम झिल्ली विकसित की है। इस झिल्ली की संरचना मजबूत होने के साथ-साथ कम घुलनशील है। इसका उपयोग कई तरह के उत्पादों की पैकेजिंग में किया जा सकता है।

वैज्ञानिकों के अनुसार, विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा स्टार्च को रूपांतरित करके उसके गुणों में सुधार किया जा सकता है। कमल के तने में उसके भार का 10-20 प्रतिशत स्टार्च होता है। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ऑक्सीकरण और क्रॉस-लिंकिंग प्रक्रिया की मदद से कमल के तने को स्टार्च में बदलकर उसके गुणों में सुधार किया है। यह अध्ययन पंजाब के संत लोंगोवाल इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है।

शोधकर्ताओं में शामिल चरणजीत एस. रायर ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि "पौधों से प्राप्त पॉलिमर से अपघटित होने लायक पैकेजिंग सामग्री बनाने के लिए काफी शोध किये जा रहे हैं। इन शोधों का उद्देश्य पेट्रोलियम आधारित प्लास्टिक का उपयोग कम करना है। स्टार्च कम लागत में आसानी से उपलब्ध हो सकता है और यह जालीनुमा संरचना बनाने में सक्षम है। यह एक ऐसा महत्वपूर्ण बहुलक (पॉलिमर) माना जाता है, जिसका उपयोग बार-बार कर सकते हैं। अकेले स्टार्च के उपयोग से बनी झिल्लियां कमजोर होती हैं और उनमें जलवाष्प भी अधिक मात्रा में होती है। ऐसे में इनका उपयोग बहुत कम हो पाता है।"

दही के पानी का प्रोटीन पनीर निर्माण का एक उप-उत्पाद होता है। प्रोटीन और स्टार्च के बीच बहुलक अंतरक्रिया से बेहतर गुणों वाली झिल्ली बनायी जा सकती है। ईसबगोल अत्यधिक पतला और चिपचिपा होता है, जिसका उपयोग झिल्ली बनाने की सामग्री में शामिल एक घटक के रूप में किया जा सकता है।


डॉ चरणजीत सिंह रायर और डॉ साक्षी सुखीजा

" पौधों से प्राप्त पॉलिमर से अपघटित होने लायक पैकेजिंग सामग्री बनाने के लिए काफी शोध किये जा रहे हैं। इन शोधों का उद्देश्य पेट्रोलियम आधारित प्लास्टिक का उपयोग कम करना है। "

इस ईको-फ्रेंडली झिल्ली को दो चरणों में तैयार किया गया है। पहले ईसबगोल भूसी को 30 मिनट तक पानी भिगोया गया और फिर उसे 20 मिनट तक उबलते पानी में गर्म किया गया है। इस घोल को ठंडा करके उसमें दही के पानी के संकेंद्रित प्रोटीन, कमल के तने का स्टार्च और ग्लिसरॉल को मिलाया गया है। इसके बाद पूरे मिश्रण को 90 डिग्री सेल्सियस तापमान पर गर्म किया गया और फिर उसे टेफ्लॉन लेपित सांचों में डाल दिया गया। इसके बाद सांचों को गर्म किया गया और फिर उनमें बनी झिल्ली को उतारकर निकाल लिया गया। इस प्रकार बनी झिल्लियों को नमी से बचाने के लिए विशेष पात्रों में एकत्रित करके रखा जाता है।

शोधकर्ताओं ने जैविक रूप से अपघटित होने में सक्षम इन झिल्लियों के विभिन्न गुणों का आकलन किया है। किसी भी झिल्ली की मोटाई उसका सबसे महत्वपूर्ण गुण होती है क्योंकि इसी से उसकी मजबूती और अवरोधक क्षमता का पता चलता है। इस शोध में ऑक्सीकरण और क्रॉस-लिंकिंग प्रक्रियाओं द्वारा संशोधित स्टार्च से बनी झिल्लियों की मोटाई काफी अधिक थी और उनमें नमी की मात्रा और तन्यता क्षमता भी अधिक पायी गई है। इसके अलावा, गैर-संशोधित स्टार्च से बनायी गई झिल्लियों की तुलना में संशोधित-स्टार्च से बनी झिल्लियों की घुलनशीलता भी कम पायी गई है।

रायर के अनुसार, "ये झिल्लियां सफेद और पारदर्शी हैं और इनसे बनाए गए थैलों में रखी सामग्री देखी जा सकती है। इसलिए उपभोक्ताओं द्वारा बड़े पैमाने पर इसके उपयोग को बढ़ावा मिलेगा। इन झिल्लियों का उपयोग खाद्य पदाथों को ढंकने के लिए उनके ऊपर परत चढ़ाने, किसी सामान को बंद करके रखने, किसी सामग्री को सूक्ष्मजीवों से संक्रमित होने से बचाने के लिए उसे लपेटकर रखने, दवाओं के वितरण और कई तरह की खाद्य सामग्रियों की पैकिंग में किया जा सकता है।"

इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं में साक्षी सुखीजा, सुखचरन सिंह और चरणजीत एस रायर शामिल थे। अध्ययन के नतीजे जर्नल ऑफ द साइंस ऑफ फूड ऐंड एग्रीकल्चर में प्रकाशित किए गए हैं।
इंडिया साइंस वायर

भाषांतरण : शुभ्रता मिश्रा