भरतपुर के केवलादेव से विलुप्‍त हुईं कई जीव प्रजातियां

रतपुर स्थित विश्‍व प्रसिद्ध राष्‍ट्रीय उद्यान केवलादेव में रहने वाले जीवों की विविधता में पिछले पांच दशक के दौरान बड़े पैमाने पर बदलाव हुआ है और यहां रहने वाले स्‍तनधारी जीवों की कई प्रजातियां स्‍थानीय तौर पर विलुप्‍त हो चुकी हैं। यह खुलासा भारतीय शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अध्‍ययन में किया गया है।

अध्‍ययनकर्ताओं के अनुसार पिछले करीब छह दशक के दौरान केवलादेव राष्‍ट्रीय उद्यान के पारीस्थितिक तंत्र में होने वाले बदलावों का असर यहां रहने वाले वन्‍य जीवों पर भी पड़ा है। वर्ष 1966 से अब तक यहां रहने वाले जीवों की आठ प्रजातियां स्‍थानीय रूप से विलुप्‍त हो चुकी हैं।

सलीम अली पक्षी-विज्ञान एवं प्राकृतिक इतिहास केंद्र, गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्‍वविद्यालय और मनीपाल विश्‍वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया यह अध्‍ययन करंट साइंस शोध पत्रिका के ताजा अंक में प्रकाशित किया गया है। कई मांसाहारी एवं शाकाहारी जीवों के विलुप्‍त होने और प्राकृतिक आवास के स्‍वरूप में निरंतर हो रहे बदलाव का असर यहां की जैविक विविधता पर पड़ रहा है।

“अध्‍ययनकर्ताओं की टीम में शामिल डॉ. एच.एन. कुमार के मुताबिक शाकाहारी वन्‍य जीव वनों के स्‍वरूप, उत्‍पादकता,पोषण चक्र और मिट्टी के ढांचे को प्रभावित करके वनों के पारीस्थितिक तंत्र में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वन्‍य जीवों के व्‍यवहार और उनके जनसांख्‍यकीय स्‍वरूप के बारे में जानकारी होने से पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने और जीवों के संरक्षण से जुड़ी प्रभावी नीतियां बनाने में मदद मिल सकती है।"

पिछले पांच दशक से अधिक समय के दौरान केवलादेव राष्‍ट्रीय उद्यान से बाघ, तेंदुआ, काला हिरण, स्‍मूद कोटेड ऑटर, तेंदुआ बिल्‍ली, देसी लोमड़ी और हनुमान लंगूर समेत कई जीवों की प्रजातियां विलुप्‍त हो चुकी हैं। इसके अलावा सांबर की आबादी भी काफी कम हुई है। जबकि पिछले करीब 25 वर्षों के दौरान नीलगाय और चीतल जैसे जीवों की संख्‍या बढ़ने के कारण केवलादेव में रहने वाले खुरदार जीवों की कुल आबादी बढ़ गई है।

जीवों की आबादी में होने वाले इस परिवर्तन के लिए स्‍थलीय एवं नम आश्रय-स्‍थलों में बदलाव को जिम्‍मेदार माना जा रहा है। लगातार पड़ने वाले सूखे के अलावा जल-खुंभी, पैसपेलम डिस्टिकम और पी. जूलीफ्लोरा समेत आक्रमणकारी पौधों की इन तीन प्रजातियों से भी यह राष्‍ट्रीय उद्यान जूझ रहा है। इसके अलावा जानवरों के परस्‍पर संघर्ष, कटाई, पशुओं की चराई, कैचमेंट एरिया से विषाक्‍त रसायनों की संभावित मौजूदगी और राजनीतिक उठापटक के कारण पानी की अनियमित आपूर्ति के कारण समस्‍या को बढ़ावा मिला है।

अध्‍ययनकर्ताओं की टीम में शामिल डॉ. एच.एन. कुमार के मुताबिक शाकाहारी वन्‍य जीव वनों के स्‍वरूप, उत्‍पादकता, पोषण चक्र और मिट्टी के ढांचे को प्रभावित करके वनों के पारीस्थितिक तंत्र में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वन्‍य जीवों के व्‍यवहार और उनके जनसांख्‍यकीय स्‍वरूप के बारे में जानकारी होने से पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने और जीवों के संरक्षण से जुड़ी प्रभावी नीतियां बनाने में मदद मिल सकती है।

अक्‍तूबर, 2014 से जून, 2015 के दौरान किए गए इस अध्‍ययन के मुताबिक वर्ष 1964 में ही तेंदुए के इस क्षेत्र से लुप्‍त मान लिया गया था। मगर हाल में फिर से तेंदुए के पैरों के निशान यहां पर देखे गए हैं। केवलादेव में बाघ की मौजूदगी के निशान भी मिले थे, जब 1999 में पहली बार एक बाघिन को यहां देखा गया। हालांकि, कुछ समय बाद उसकी मौत हो गई थी। वर्ष 2010 में एक बाघ रणथंबौर राष्‍ट्रीय उद्यान से केवलादेव पहुंच गया था, जिसे बाद में सरिस्‍का ले जाया गया।

मत्स्य-विडाल (फिशिंग कैट) को भी केवलादेव से विलुप्‍त मान लिया गया था। लेकिन इस अध्‍ययन के दौरान फिशिंग कैट को दोबारा देखा गया है। इसी तरह स्‍थानीय रूप से विलुप्‍त माने जा रहे संकटग्रस्‍त हॉग डीयर (पाढ़ा) को भी फिर से देखा गया है। भूरे रंग की धब्‍बेदार बिल्‍ली (प्रायोनेलरस रूबीजिनोसस) को कैमरे में पहली बार कैद किया गया है। भारतीय पैंगोलिन भी कई बार दिखे हैं। इसके अलावा अध्‍ययनकर्ताओं ने चमगादडों की चार प्रजातियों के होने की उम्‍मीद भी जताई है।

खुर वाले जीवों की आबादी केवलादेव में सबसे अधिक पायी गई है। खासतौर पर चीतल की आबादी वर्ष 1989 के मुकाबले पांच गुना अधिक पायी गई है। इसी तरह नीलगाय की आबादी भी रणथंबौर, गिर और सरिस्‍का जैसे राष्‍ट्रीय उद्यानों के मुकाबले केवलादेव में अधिक दर्ज की गई है। अध्‍ययन में यह स्‍पष्‍ट किया गया है कि सांबर, चीतल और नीलगाय समेत यहां रहने वाले ज्‍यादातर खुर वाले जीव नम क्षेत्रों में रहना अधिक पसंद करते हैं।

चीतल, नीलगाय, सांबर और वनों में रहने वाले पालतू जीवों के वंशज जानवरों (फेरल कैटल) के लिंगानुपात में भी असंतुलन पाया गया है। अध्‍ययनकर्ताओं के मुताबिक प्रत्‍येक 100 मादा पर नर चीतल, नीलगाय, सांबर और फेरल कैटल की संख्‍या क्रमश: 61, 76, 75 और 52 दर्ज की गई है।

केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान हजारों की संख्या में दुर्लभ प्रजातियों के पक्षी पाए जाते हैं। करीब 29 वर्ग किलोमीटर में फैले केवलादेव राष्‍ट्रीय उद्यान को अनौपचारिक रूप से पक्षी अभ्‍यारण्‍य 1956 में ही घोषित कर दिया गया था। लेकिन आधिकारिक रूप से वर्ष 1971 में इसे संरक्षित पक्षी अभयारण्य और फिर वर्ष 1981 में राष्‍ट्रीय उद्यान का दर्जा दिया गया। इसके बाद वर्ष 1985 में इसे यूनेस्‍को की विश्व धरोहरों की सूची में शामिल कर लिया गया था।

इस राष्‍ट्रीय उद्यान में पक्षियों की 350, रेंगने वाले जीवों की 13 प्रजातियां, उभयचर जीवों की सात प्रजातियां और मछलियों की 40 प्रजातियों के अलावा आवृतबीजी पादप समुदाय की 375 किस्‍मों के पाए जाने की जानकारी मिलती है। केवलादेव में 43 स्‍तनधारी जीवों की प्रजातियों का भी जिक्र मिलता है, जिसमें से 30 प्रजातियां आज भी मौजूद हैं। अध्‍ययनकर्ताओं की टीम में एच.एन. कुमार, आकृति सिंह, अदिति मुखर्जी और सुमित डुकिया शामिल थे। (India Science Wire)

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