क्षुद्रग्रहों की तलाश करती खगोलीय पुलिस

काश में झिलमिलाते तारे और चंद्रमा के घटने-बढ़ने जैसी आकाशीय घटनाएं सदियों से मानव मन में रोमांच पैदा करती रही हैं। तारों एवं खगोलीय पिंडों को लेकर प्रचलित सैकड़ों कहानियां इसका प्रमाण हैं। आकाशीय पिंडों को लेकर की जाने वाली इन मानवीय परिकल्पंनाओं ने इनके बारे में अधिक जानकारियां जुटाने के लिए मनुष्यड को प्रेरित किया।

वर्ष 1788 में जर्मन खगोल-विज्ञानी जॉन इलर्ट बोडे ने जब सौरमंडल के ग्रहों के मध्य की दूरी को एक अनुपात में व्यक्त किया तो खगोलीय पिंडों के संसार में झांकने की मनुष्यल की इच्छास और भी बलवती हो गई। बोडे ने पाया कि सूर्य से बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति ग्रहों की दूरियों का अनुपात एक क्रम बनाता है, जिसमें 3 का क्रमिक गुणन जैसे- 3, 6 आदि नजर आता था। इसका पूरा क्रम 3, 6, 12, 48, 96 था। तीसरे और चौथे क्रम में संख्या 12 और 48 थी, जिससे गुणन का क्रम भंग हो रहा था। इस स्थिति को देखकर उस समय इन दो ग्रहों यानी मंगल और बृहस्पति के बीच अन्य ग्रहों के उपस्थित होने की संभावना व्य क्ति की गई। तभी से वैज्ञानिकों ने इन ग्रहों को खोजना आरंभ कर दिया।

करीब 200 साल पहले आकाशीय पिंडों को खोजने के लिए खगोलीय पुलिस काम करती थी। हंगरी के फ्रांज क्सवर वॉन जैक नामक खगोल वैज्ञानिक ने आकाशीय पिंडों को खोजने के लिए खगोलीय पुलिस नामक एक समूह का गठन किया था।

“वर्ष 1802 में दूसरा ऐसा पिंड खोजा गया और 1803 में खोजे गए ऐसे पिंडों की संख्या तीन हो गई। यह सिलसिला चलता रहा और वर्ष 1868 तक ऐसे 100 पिंडों को खोज निकाला गया। जब इस तरह के सैंकड़ों खगोलीय पिंड खोज लिए गए तो बहस इस पर शुरू हो गई‍ कि इन्हें ग्रह नहीं कहा जा सकता क्योंकि इनके गुणधर्म ग्रहों से अलग हैं। ऐसे में इन्हें बौने ग्रह या क्षुद्रग्रह कहा गया। ”

इटली के खगोल-विज्ञानी ग्यूसेप पियाज्ज़ी ने 1 जनवरी, 1801 में इस तरह के पहले खगोलीय पिंड यानी क्षुद्रग्रह को खोजा था। यह पिंड सेरेस था। दिलचस्प बात यह थी कि उस समय ग्यूसेप पियाज्ज़ी खगोलीय पुलिस समूह का हिस्सा नहीं थे। इसके बाद तो खगोलीय पुलिस समूह द्वारा कई खगोलीय पिंडों को खोजा गया। उस समय तक इन पिंडों को ग्रह ही कहा जाता था।

वर्ष 1802 में दूसरा ऐसा पिंड खोजा गया और 1803 में खोजे गए ऐसे पिंडों की संख्या तीन हो गई। यह सिलसिला चलता रहा और वर्ष 1868 तक ऐसे 100 पिंडों को खोज निकाला गया। जब इस तरह के सैंकड़ों खगोलीय पिंड खोज लिए गए तो बहस इस पर शुरू हो गई‍ कि इन्हें ग्रह नहीं कहा जा सकता क्योंकि इनके गुणधर्म ग्रहों से अलग हैं। ऐसे में इन्हें बौने ग्रह या क्षुद्रग्रह कहा गया।

प्रकाशीय फोटोग्राफी का ईजाद होने से पहले क्षुद्रग्रहों को खोजने के लिए स्टार चार्ट का उपयोग करके दूरबीन से आकाश की किसी विशेष स्थिति को एक नियमित अंतराल पर देखा जाता था। खगोल-वैज्ञानिकों द्वारा उस स्थान विशेष में यदि कोई ऐसा पिंड दिखाई देता, जिसकी गति तारों के सापेक्ष बदलती रहती है तो वह फिर उसका विस्तार से अध्ययन करते थे। इस प्रकार क्षुद्रग्रहों की खोज की जाती थी।

ग्यूसेप पियाज्ज़ी द्वारा खोजे गए पहले क्षुद्रग्रह सेरेस को अब बौने ग्रह की श्रेणी में रखा गया है। तब से लेकर अब तक खगोल-विज्ञानी दो लाख से अधिक क्षुद्रग्रहों का पता लगा चुके हैं। भारत से सबसे पहला क्षुद्रग्रह वर्ष 1885 में ब्रिटिश खगोल-विज्ञानी नार्मन रोबर्ट पोग्सन द्वारा खोजा गया था, जो उस समय मद्रास वेधशाला में कार्यरत थे। इस खोज में मद्रास वेधशाला में कार्यरत एक भारतीय खगोल-विज्ञानी चिंतामणी रघुनाथचारी का भी उल्लेखनीय योगदान था। इसके करीब सौ साल बाद भारत से 17 फरवरी, 1988 को क्षुद्रग्रह खोजा गया। भारत में केवलूर में स्थित वेणु बप्पू वेधशाला से अब तक अनेक क्षुद्रग्रहों को खोजा जा चुका है।

वेणु बप्पू वेधशाला से खोजे गए दो क्षुद्रग्रहों का नामकरण प्रोफेसर एम.जी.के. मेनन और प्रोफेसर जे.सी. भट्टाचार्य के नाम पर किया गया है। प्रोफेसर एम.जी.के. मेनन भारतीय तारा-भौतिकी संस्थान के निदेशक और प्रोफेसर जे.सी. भट्टाचार्य भारतीय तारा-भौतिकी संस्थान परिषद् के अध्यक्ष रह चुके हैं।

आधुनिक समय में प्रकाशीय फोटोग्राफी ने खगोलीय पिंड़ों के अध्ययन को आसान बना दिया है। फोटोग्राफी का उपयोग करके आकाश के किसी विशेष हिस्से का फोटो विभिन्न समय अंतराल पर लिया जाता है और उस हिस्से में यदि किसी पिंड की चाल तारों के सापेक्ष बदलती है तो उस पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इस प्रकार नए खगोलीय पिंड को खोजा जाता है।

इंटरनेशनल एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी द्वारा क्षुद्रग्रहों का नामकरण किया जाता है। आरंभ में अधिकतर क्षुद्रग्रहों का नामकरण यूरोपीय नामों पर किया जाता था। लेकिन बाद में इंटरनेशनल एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी ने सुझाव दिया कि क्षुद्रग्रहों का नामकरण वैश्विक हो। तभी से क्षुद्रग्रहों का नामकरण उनके खोजकर्ता की पसंद के आधार पर किया जाने लगा। क्षुद्रग्रहों के नामकरण में कई भारतीय नामों को भी स्थान मिला है। इनमें हनुमान, गरूड़, अरुणा, साराभाई, मृणालिणी, रामानुजन और हरिश्चं द्र जैसे कुछ प्रमुख नाम शामिल हैं।

अधिकतर क्षुद्रग्रहों में धातुओं की मौजूदगी की संभावना व्यक्त की गई है। इन पर मिलने वाली धातुओं में सोना, चांदी, ओसमियन, प्लैटिनम, टंगस्टन आदि शामिल हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर वैज्ञानिक इनके आर्थिक महत्व पर भी विचार कर रहे हैं।

भविष्य में संभव है कि इन क्षुद्रग्रहों पर खनन करके वहां से विभन्न धातुओं को धरती पर लाया जाए। कुछ देशों ने क्षुद्रग्रहों के अध्ययन के लिए अंतरिक्ष अभियान भी चलाए हैं। जापान ने वर्ष 2003 में इटोकावा नामक क्षुद्रग्रह के अध्ययन के लिए हायाबुसा अभियान चलाया था। ऐसे अभियानों का उद्देश्य क्षुद्रग्रह के नमूनों का विश्लेषण करना है ताकि ब्रह्मांड की उत्पत्ति से संबंधित जानकारियां मिल सकें। नासा भी ऐस्टरॉयड रिडायरेक्ट मिशन पर काम चल रहा है, जिसका उद्देश्य पृथ्वी के समीप के किसी क्षुद्रग्रह से नमूनों को धरती पर लाना है, जिससे उसकी संरचना को विस्तार से जांचा-परखा जा सके।

क्षुद्रग्रहों के बारे में जागरूकता के प्रसार के लिए प्रत्येक वर्ष 30 जून को अंतरराष्ट्रीय क्षुद्रग्रह दिवस मनाया जाता है। इस दिन पूरे विश्व में अनेक स्थानों पर क्षुद्रग्रह सहित खगोल-विज्ञान से संबंधित कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी ऑफ इंडिया भी देश भर में अनेक स्थानों पर क्षुद्रग्रह दिवस से संबंधित कार्यक्रमों को आयोजन करती है। इस संस्था ने अपनी वेबसाइट पर क्षुद्रगह दिवस से संबंधित तमाम जानकारियां विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध कराई हैं। एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी ऑफ इंडिया की वेबसाइट पर क्षुद्रग्रहों के बारे में कई रोचक जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं। (India Science Wire)

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