वैज्ञानिकों ने घाव भरने के लिए विकसित किया दही आधारित जैल                                                                 

      

हाइड्रोजैल का परीक्षण कोशिकाओं पर शून्य, चार और 24 घंटे के अंतराल पर किया गया है। ऊपरी पंक्ति में सामान्य कोशिकाएं तो दूसरी पंक्ति में हाइड्रोजैल उपचारित कोशिकाएं हैं

वाओं के खिलाफ बैक्टीरिया की बढ़ती प्रतिरोधक क्षमता के कारण कई बार घावों को भरने के लिए उपयोग होने वाले मरहम बेअसर हो जाते हैं, जिससे मामूली चोट में भी संक्रमण बढ़ने का खतरा रहता है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), खड़गपुर के वैज्ञानिकों ने अब दही आधारित ऐसा एंटीबायोटिक जैल विकसित किया है जो संक्रमण फैलाने वाले बैक्टीरिया की वृद्धि रोकने के साथ-साथ तेजी से घाव भरने में मददगार हो सकता है।

दही के पानी में जैविक रूप से सक्रिय पेप्टाइड्स होते हैं, जिनका उपयोग इस शोध में उपचार के लिए किया गया है। शोधकर्ताओं ने 10 माइक्रोग्राम पेप्टाइड को ट्राइफ्लूरोएसिटिक एसिड और जिंक नाइट्रेट में मिलाकर हाइड्रोजैल बनाया है। इस जैल की उपयोगिता का मूल्यांकन दवाओं के प्रति प्रतिरोधी क्षमता रखने वाले बैक्टीरिया स्टैफिलोकॉकस ऑरियस और स्यूडोमोनास एरुजिनोसा पर किया गया है। यह हाइड्रोजैल इन दोनों बैक्टीरिया को नष्ट करने में प्रभावी पाया गया है। हालांकि, वैज्ञानिकों ने पाया कि स्यूडोमोनास को नष्ट करने के लिए अधिक डोज देने की जरूरत पड़ती है।


"बैक्टीरिया समूह आमतौर पर किसी जैव-फिल्म को संश्लेषित करके उसके भीतर रहते हैं जो उन्हें जैव प्रतिरोधी दवाओं से सुरक्षा प्रदान करती है। "

आईआईटी, खड़गपुर की शोधकर्ता डॉ शांति एम. मंडल ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “बैक्टीरिया समूह आमतौर पर किसी जैव-फिल्म को संश्लेषित करके उसके भीतर रहते हैं जो उन्हें जैव प्रतिरोधी दवाओं से सुरक्षा प्रदान करती है। इस जैव-फिल्म का निर्माण बैक्टीरिया की गति पर निर्भर करता है। हमने पाया कि नया हाइड्रोजैल बैक्टीरिया की गति को धीमा करके जैव-फिल्म निर्माण को रोक देता है।”

घावों को भरने में इस हाइड्रोजैल की क्षमता का आकलन करने के लिए वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में विकसित कोशिकाओं का उपयोग किया है। इसके लिए त्वचा कोशिकाओं को खुरचकर उस पर हाइड्रोजैल लगाया गया और 24 घंटे बाद उनका मूल्यांकन किया गया। इससे पता चला कि हाइड्रोजैल के उपयोग से क्षतिग्रस्त कोशिकाओं की प्रसार क्षमता बढ़ सकती है। इसी आधार पर शोधकर्ताओं का मानना है कि यह जैल घाव भरने में उपयोगी हो सकता है।

शोधकर्ताओं में डॉ मंडल के अलावा, सौनिक मन्ना और डॉ अनंता के. घोष शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका फ्रंटियर्स इन माइक्रोबायोलॉजी में प्रकाशित किया गया है।
इंडिया साइंस वायर

भाषांतरण : उमाशंकर मिश्र

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