हिमालयी क्षेत्र में ब्लैक कार्बन के आकलन में मददगार हो सकता है नया अध्ययन                                                                 

      

हिमालय के हिमाच्छादित शिखर (फोटोः पवन बर्णवाल )

ब्लैक कार्बन को ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में कार्बन डाइऑक्साइड के बाद दूसरा सबसे बड़ा प्रदूषक तत्व माना जाता है। एक नये अध्ययन में भारतीय शोधकर्ताओं ने एक ऐसी पद्धति विकसित की है, जो हिमालयी क्षेत्र में ब्लैक कार्बन के सटीक आकलन और मौसम तथा जलवायु संबंधी पूर्वानुमानों के सुधार में मददगार हो सकती है।

शोधकर्ताओं ने पाया है कि हिमालयी क्षेत्र में ब्लैक कार्बन का सटीक आकलन ऑप्टिकल उपकरणों के उपयोग से संभव हो सकता है। यह पद्धति हिमालयी क्षेत्र के लिए मास एब्जॉर्प्शन क्रॉस-सेक्शन (एमएसी) नामक विशिष्ट मानदंड पर आधारित है। शोधकर्ताओं ने एमएसी, जो कि एक आवश्यक मानदंड है, और जिसका उपयोग ब्लैक कार्बन के द्रव्यमान सांद्रता को मापने के लिए किया जाता है, का मान निकाला है। उनका कहना है कि इससे संख्यात्मक मौसम पूर्वानुमान एवं जलवायु मॉडल के प्रदर्शन में भी सुधार हो सकता है।

यह अध्ययन आर्यभट्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ ऑब्जर्वेशनल साइंसेज (एरीज), जो कि भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के तहत एक स्वायत्त संस्थान है, के वैज्ञानिकों ने दिल्ली विश्वविद्यालय, आईआईटी कानपुर और इसरो के वैज्ञानिकों के सहयोग से किया है। अध्ययन में, मध्य हिमालयी क्षेत्र में ब्लैक कार्बन और एलिमेंटल कार्बन का व्यापक निरीक्षण किया गया है, और मासिक एवं तरंगदैर्ध्य आधारित एमएसी के मान का आकलन किया गया है।


ब्लैक कार्बन को ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में कार्बन डाइऑक्साइड के बाद दूसरा सबसे बड़ा प्रदूषक तत्व माना जाता है। एक नये अध्ययन में भारतीय शोधकर्ताओं ने एक ऐसी पद्धति विकसित की है, जो हिमालयी क्षेत्र में ब्लैक कार्बन के सटीक आकलन और मौसम तथा जलवायु संबंधी पूर्वानुमानों के सुधार में मददगार हो सकती है।

इस अध्ययन में शामिल प्रियंका श्रीवास्तव और उनके पीएचडी सुपरवाइजर डॉ मनीष नाजा ने एमएसी का वार्षिक माध्य मान (5.03 ± 0.03 m2 g− 1 at 880 nm) निकाला है। उन्होंने पाया कि यह पहले उपयोग होने वाले स्थिर मान (16.6 m2 g− 1 at 880 nm) से काफी कम है। माना जा रहा है कि यह कम मान इस अपेक्षाकृत स्वच्छ स्थान पर प्रसंस्कृत (ताजा नहीं) वायु प्रदूषण उत्सर्जन की आवाजाही का परिणाम हो सकता है। अध्ययन में यह तथ्य भी उजागर हुआ है कि अनुमानित एमएसी मान मौसमी आधार पर बदल सकता है। ये बदलाव बायोमास जलने के मौसमी बदलाव, वायु द्रव्यमानमें भिन्नता और मौसम संबंधी मापदंडों के कारण होते हैं।

शोधकर्ताओं के अनुसार एमएसी की गणना में उपयोग किए गए हाई-रिजोल्यूशन बहु-तरंगदैर्ध्य और दीर्घकालिक अवलोकन ब्लैक कार्बन उत्सर्जन के कारण गर्मी बढ़ाने वाले प्रभावों के आकलन में संख्यात्मक मौसम पूर्वानुमान और जलवायु मॉडल्स के अनुमानों के प्रदर्शन में सुधार में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। विभिन्न तरंगदैर्ध्य पर ब्लैक कार्बन को लेकर स्पष्ट जानकारी ब्लैक कार्बन उत्सर्जन के स्रोतों पर नियंत्रण लगाने से जुड़े अध्ययनों में भी उपयोगी हो सकती है। इसके साथ ही, इससे उपयुक्त नीतियां बनाने में भी मदद मिल सकती है।

यह अध्ययन शोध पत्रिका ‘ एशिया पेसिफिक जर्नल ऑफ एटमॉस्फेरिक साइंसेज ’ में प्रकाशित किया गया है।


इंडिया साइंस वायर

ISW/RM/HIN/09/06/2021

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