भूवैज्ञानिकों ने चिह्नित किये हीरा-युक्त किम्बरलाइट्स के नये संभावित क्षेत्र                                                                 

      

चेन्नई के उत्तर-पश्चिम और हैदराबाद के दक्षिण में दूर-दूर तक गहरे रंग के चट्टानी टीले दिखाई देते हैं। भूगर्भशास्त्र की दृष्टि से ये चट्टानी टीले भारत के पूर्वी धारवाड़ क्रेटन क्षेत्र में आते हैं। सीएसआईआर-राष्ट्रीय भूभौतिकीय अनुसंधान संस्थान (एनजीआरआई), हैदराबाद द्वारा जारी की गई जानकारी के अनुसार, मैफिक चट्टानों के इन टीलों की आयु-निर्धारण के क्रम में संस्थान के वैज्ञानिकों ने हीरे वाले किम्बरलाइट्स के नये संभावित स्थलों की पहचान की है।

मैफिक चट्टानों में सिलिका की मात्रा लगभग 50 प्रतिशत कम होती है और ये मैग्नीशियम तथा फेरिक यौगिकों से भरपूर होते हैं। मैग्नीशियम और फेरिक शब्दों को संयुक्त और संक्षिप्त कर भूवैज्ञानिक उन्हें मैफिक चट्टान कहते हैं। आमतौर पर, ये चट्टानें बेहद सख्त होती हैं, जिनका खनन सड़क और भवन निर्माण में उपयोग के लिए किया जाता है।

पूर्वी धारवाड़ क्रेटन क्षेत्र के विभिन्न हिस्सों में ऐसे 150 से अधिक किम्बरलाइट्स स्थलों की पहचान हो चुकी है जिनमें से कर्नाटक के रायचूर और आंध्रप्रदेश के वज्रकरूरु स्थित किम्बरलाइट्स क्षेत्र हीरा-युक्त पाए गए हैं।

हीरे अधिकांशतः धरती की परत से 150 किलोमीटर से भी अधिक गहराई में निर्मित और संरक्षित होते हैं। ये हीरे किम्बरलाइट्स चट्टानों में, धरती की सतह के निकट भी पाये जा सकते हैं। किम्बरलाइट्स चट्टानों का नामकरण दक्षिण अफ्रीका के किम्बरले नामक स्थान पर किया गया है, जहाँ से हीरे के खनन की शुरुआत हुई थी।

एनजीआरआई के शोधकर्ताओं ने मैफिक डाइक के निर्माण के पीछे उत्तरदायी भूगर्भीय गतिविधियों (मैंटल प्लूम) की पड़ताल और धारवाड़ क्रेटन के हीरायुक्त किम्बरलाइट की जड़ों पर उनके प्रभाव की पड़ताल की है। हैदराबाद के दक्षिण और चेन्नई के उत्तर पश्चिम के विशाल चट्टानी क्षेत्र के सात डाइक और तीन सीलों से उन्होंने अध्ययन के लिए नमूने एकत्र किये। पृथ्वी की सतह के नीचे, चट्टानी दरारों में क्षैतिज अवस्था में ठंढे हो चुके मैग्मा को सील कहा जाता है। इसी प्रकार, धरातल के नीचे लंबवत् अवस्था में जमे लावा को डाइक कहते हैं।


चेन्नई के उत्तर-पश्चिम और हैदराबाद के दक्षिण में दूर-दूर तक गहरे रंग के चट्टानी टीले दिखाई देते हैं। भूगर्भशास्त्र की दृष्टि से ये चट्टानी टीले भारत के पूर्वी धारवाड़ क्रेटन क्षेत्र में आते हैं। सीएसआईआर-राष्ट्रीय भूभौतिकीय अनुसंधान संस्थान (एनजीआरआई), हैदराबाद द्वारा जारी की गई जानकारी के अनुसार, मैफिक चट्टानों के इन टीलों की आयु-निर्धारण के क्रम में संस्थान के वैज्ञानिकों ने हीरे वाले किम्बरलाइट्स के नये संभावित स्थलों की पहचान की है।


एकत्रित नमूनों का चूरा बनाकर उसमें से बैडेलीआइट्स कणों को पृथक कर लिया गया। बैडेलीआइट्स, सिलिका चट्टानों में पाये जाने वाले जिरकोनियम ऑक्साइड खनिज का एक क्रिस्टल है। चूंकि यह अत्यंत स्थिर है, इसीलिए इसका उपयोग रेडियोमेट्रिक आयु निर्धारित करने के लिए किया जा सकता है।

वैज्ञानिकों ने बैडेलीआइट्स कणों से तापीय रूप से सीसा निकाला और, सीसे के विभिन्न समस्थानिकों के अनुपात का निर्धारण करके, उन्होंने चट्टान के नमूनों की आयु की गणना की। इस प्रकार शोध टीम ने कम से कम आठ अलग-अलग कालखंडों की पहचान की है, जब धरती के गर्भ से निकलने वाले खौलते लावा (मैग्मा) ने कालांतर में ठंढे होकर पूर्वी धारवाड़ क्षेत्र में मैफिक डाइक का निर्माण किया।

एनजीआरआई के शोधकर्ता ई. नागराजू बताते हैं -"एकत्र किये गए नमूनों की डेटिंग से पता चला है कि इनमें से पहला लगभग 2367 मिलियन वर्ष पहले निर्मित हुआ था।" इसके बाद की आग्नेय शैलें (अन्तर्वेधी चट्टानें) लगभग 2253, 2216, 2210, 2082, 2180, 1886 तथा 1864 मिलियन वर्ष पूर्व की निर्मिति बतायी जा रही हैं।

एनजीआरआई की अध्ययन टीम के सदस्य वी. परशुरामुलु बताते हैं - "वर्ष 1864 मिलियन वर्ष पूर्व घटित होने वाली मैफिक घटना, मैफिक डाइक पर शोध करने वाले पूर्ववर्ती अध्ययनकर्ताओं की दृष्टि में नहीं आ पायी थी।"

इन मैफिक डाइक के समूहों में दो समानांतर और छह रेडिएटिंग कोटि के थे। रेडिएटिंग डाइक समूह के डाइक एक हीं बिंदु पर मिलते पाये गए हैं, जो शायद उनके उद्गम या प्लम हेड का द्योतक है। इस अवधारणा के आधार पर, वैज्ञानिकों ने चार मेंटल प्लूम केंद्रों का पता लगाया है। मेंटल प्लूम पृथ्वी के आतंरिक केंद्र का वह स्थान है, जहाँ से गर्म चट्टानें पिघलकर मैग्मा के रूप में ऊपर उठती हैं। लगभग 2367, 2210 और 2180 मिलियन वर्ष पूर्व सक्रिय पश्चिमी प्लूम केंद्र हीरा-विहीन नारायण पेट किम्बरलाइट क्षेत्र के निकट है। लेकिन, लगभग 2082 मिलियन वर्ष पहले का प्लूम हेड वर्तमान में धारवाड़ क्रेटन के कडप्पा बेसिन के नीचे है, जो हीरा-युक्त वज्रकरूरु किम्बरलाइट क्षेत्र के 100 किलोमीटर के दायरे में स्थित है।

शोधकर्ताओं में शामिल डी. श्रीनिवास शर्मा बताते हैं - "लगभग 1886-1864 मिलियन वर्ष पहले की मैग्मैटिक हलचल के बाद, मेंटल प्लूम की कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं हुई। लिथोस्फेयर के ठंढे हो जाने से हीरे के निर्माण के अनुकूल परिस्थितियां बहाल हो गयी होंगी। इस प्रकार, 1100 मिलियन वर्ष पूर्व निर्मित किम्बरलाइट विध्वंस से बच गए और उनमे हीरा भी बचा रह गया।”

इस अध्ययन में शामिल शोधकर्ताओं में डी श्रीनिवास शर्मा, वी. परशुरामुलु और ई.नागराजू के अलावा एम.संतोष तथा एन.रमेश बाबू शामिल हैं। इस अध्ययन से, चिह्नित किम्बरलाइट क्षेत्रों में पृथ्वी की सतह से कई किलोमीटर नीचे हीरे पाये जाने की संभावना को बल मिला है। फिर भी, हीरा-खनन के उपयुक्त स्थानों को खोजने के लिए आगे कई और वैज्ञानिक अध्ययनों की आवश्यकता होगी।


इंडिया साइंस वायर

ISW/SP/CSIR-NGRI/DIAMONDIFEROUS KIMBERLITE/HIN/26/11/2022